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जा सकते हैं ।
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जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप
उन श्रमणोपासकों की इतनी अगाध श्रद्धा है कि निर्ग्रन्थ प्रवचन सकता । ' तत्त्व' जो कि जिन प्रणीत अन्यत्र भी तत्त्वों के अस्तित्व का
से उनको अलग नहीं किया जा हैं उनका भी यहाँ उल्लेख है । उल्लेख किया है—
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लोक- अलोक, जीव- अजीव, धर्म-अधर्म, बंध-मोक्ष, पुण्य-पाप, आस्रव-संवर, वेदना - निर्जरा, क्रिया- अक्रिया, क्रोध - मान, मायालोभ, प्रेम (राग) - द्वेष, चातुर्गतिक संसार, देव-देवी, सिद्धि - असिद्धि, सिद्धि गति निज स्थान, साधु-असाधु, कल्याणवान और पापी इन सभी का अस्तित्व है यह मानना चाहिये। इसी के साथ यह भी बताया:गया है कि ये सभी पदार्थ नहीं है ऐसा नहीं मानना चाहिये । २
इस प्रकार इन दो सूचियों को देखते हुए हमें ज्ञात होता है कि यहाँ सम्यक्त्व का, श्रद्धान का, विषय क्या हो ? बस्तु का स्वीकार और अवस्तु का अस्वीकार ही दृढ़ता, विश्वास और श्रद्धान है ।
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श्रमणोपासकों का उदाहरण भी इसमें दिया है
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वह लेप नाम का गाथापति श्रमणोपासक जीवादि तत्त्वों को जानने वाला था । निर्ग्रन्थ प्रवचन में निःशंक, निःकांक्षित और निर्विचिकित्सक था । वह वस्तु स्वरूप को जानने वाला मोक्ष मार्ग को स्वीकार किया हुआ एवं विद्वानों से पूछ कर विशेष रूप से निश्चय किया हुआ, पदार्थों को अच्छी तरह समझा हुआ था । १. " समणोवासगा भवंति अभिगय जीवा - जीवा उवलद्धपुण्णपावा आसव संवर वेयणाणिज्जगकिरियाहिग रणबंधमोक्खकुसला असहेजदेवासुरनागसुवण जक्ख रक्खस किन्नर किंपुरिस गरुलगन्धव्वमहोरगाइएहिं देवगणेहिं निग्गंथाओ पावयणाओ अणइक्कमणिजा इणमेव निग्गन्थे पात्रयणे णिस्संकिया णिक्कंखिया निव्वितिमिच्छा " सूत्र.द्वि. श्रु. द्वि अध्य सूत्र ३९, पृ १८२-८३ ॥
२ . वही, पंचम अध्यय० गा० १२-२८, पृ० ३०३-३२२ ॥