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अध्ययन २
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हुए,
किन्तु जो शरीरात्मवादी हैं, उस में श्रद्धा रखते उसे सत्य मानते हुए, उसमें रूचि रखते हुए, वे पापकर्म से निवृत्त नहीं होते हैं । इसी तरह वे स्त्री काम भोगों में आसक, उस में अत्यंत इच्छा वाले, उनमें लुब्ध होते हैं । राग द्वेष से आर्त वे अपनी आत्मा को संसार रूपी पाश से मुक्त नहीं कर सकते।' इस सूत्र में शरीरात्मवादी अर्थात् चार्वाक, ईश्वरकतत्ववाद, आत्माद्वैतवाद का खण्डन किया हैं । इस प्रकार जो भी सत्य स्वरूप के यथार्थता के ज्ञाता नहीं उनकी मुक्ति नहीं हो सकती क्योंकि वे राग-द्वेष, विषय- कषाय से आवृत्त हैं ।
आचारांग सूत्र तथा सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध तक सम्यक्त्व और मुनि का एकीकरण किया गया था किंतु सूत्रकृतांग के दूसरे श्रुतस्कन्ध श्रमणोपासक (गृहस्थ - श्रावक ) जो कि श्रद्धाशील है, उस में भी सम्यक्त्वं के लक्षणों द्वारा श्रद्धान लक्षित किया है और उन श्रमणोपासकों की इतनी दृढ श्रद्धा है कि उन्हें उस से चलायमान नहीं 'किया जा सकता -
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वे श्रमणोपासक जीव - अजीव के ज्ञाता, जिन्होंने पुण्य और पाप का ज्ञान कर लिया है। तथा आस्रव, संवर, निर्जरा, क्रिया, अधिकरण, बंध और मोक्ष के स्वरूप में कुशल अर्थात् तत्त्वज्ञ होते हैं । निर्ग्रन्थ प्रवचन में वे निःशंक, कांक्षारहित और फल में सदेहरहित होते हैं कि वे असहाय होने पर भी देव, असुर, नाग, सुवर्ण, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, गरुड़, गन्धर्व आदि देवगणों के द्वारा निर्ग्रन्थ प्रवचन से अनतिक्रमणीय होते हैं अर्थात् उस से अलग नहीं किये
१. तं सद्द्दहमाणा तं पत्तियमाणा तं रोएमाणा... पावं कम्मं णो करिस्लामो समुट्ठाय ते अपना अध्यडिविरया भवन्ति,... पत्रमेष ते इत्थिकामभोगेहिं मुच्छिया गिद्धा अज्झोववन्ना लुद्धा रागदोसवसट्टा ते णो अप्पाणं समुच्छेदेति " - वही, पृ. ३४-३६.