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२८.
जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप
ज्ञानदृष्टि भी जभी खुल सकती है जब मोहनीय कर्मावरण दूर होगा ।
इस प्रकार सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध में सम्यक्त्व का विषय तथा सम्यक्त्व के न होने के कारण का उल्लेख विशेष रूप से लक्षित होता है तथा सम्यक्त्व के अभाव में मोक्ष तो दूर ज्ञान भी सम्यग्ज्ञान नहीं हो सकता है यह बताया गया है ।
अंब हम सूत्रकृतांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध में सम्यक्त्वविषयक विचार व विकास की और दृष्टिपात करेंगे । सूत्रकृतांग का प्रथम - श्रुतस्कन्ध द्वितीय श्रुतस्कन्ध से प्राचीन हैं ।' विद्वानों ने यह स्वीकार किया है । इस में यह कहा है कि " जो पुरुष कषायों और सब इन्द्रियों के भोगों से निवृत्त है वे धर्मपक्ष वाले हैं । यह स्थान आर्य स्थान है. जो कि समस्त दुःखों का नाशक है। यह एकांत सम्यक् स्थान / उत्तम स्थान है ।
इस प्रकार धर्मपक्ष वालों का स्थान सम्यकू, आर्य स्थान कहा । आगे सूत्रकार कह रहे हैं कि श्रमण और ब्राह्मण जो धर्मश्रद्धालु हैं उन्हीं के पास जाते हैं- विभिन्न कुलों में उत्पन्न व्यक्तियों में से जो कोई धर्म में श्रद्धा रखने वाला होता है, उस धर्मश्रद्धालु के पास श्रमण या ब्राह्मण जाने का निश्चय करते हैं ।
यहाँ धर्म पक्ष वालों का स्थान सम्यक तथा आर्य स्थान तो कहा ही हैं साथ ही हमें यह दृष्टिगोचर होता है कि धर्मश्रद्धालु के लिए कोई निश्चित् कुल का कथन नहीं किया बल्कि विभिन्न कुलों में उत्पन्न व्यक्तियों का कथन है बेशर्ते कि वे धर्म पर प्रगाढ श्रद्धा रखने वाला हो ।
१. देखो जन दर्शन का आदिकाल, पृ २६
२. सोवसंता सत्ताए परिनिव्वुडेत्ति बेमि ।
एस ठाणे आरिए केवले जाव सव्वदुक्खप्पहीणमग्गे एगंत सम्मे साहु | - सूत्र० द्वि० श्रु० अध्य० द्वितीय, सृ० ३३ ॥ ३. तेसि च णं एगत्तीए सड्ठी भवइ कामं तं समणा वां माहणा वा - द्वि. श्रु. प्रथम अध्य. स. ९, पृ २५ ॥
संपहारसुगमणाए "