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अध्याय २
३७
जीवाजीवादिक पदार्थों में श्रद्धा होना सम्यक्त्व है । यह यहाँ द्योतित होता है । आचारांग से लेकर अब तक के अंग सूत्रों में तथा अंग बाह्य अर्थात् अंगों से इतर आगम ग्रन्थों में सम्यक्त्व का अर्थ क्या है ? यह यहाँ स्पष्ट हुआ ।
उपर्युक्त गाथा में कहा है कि
जीवाजीवादिक पदार्थों के सद्भाव में " तो वे जीवाजीवादिक पदार्थ कौन से हैं? उसके लिए कहा है - जीव, अजीव, बन्ध, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये नौ पदार्थ हैं ।
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अर्थात् इन नव पदार्थों पर श्रद्धान सम्यक्त्व है यह इससे तात्पर्य निकलता है |
इस प्रकार यहाँ जीवादि नौ पदार्थों पर श्रद्धा होना सम्यक्त्व है। यह निर्धारित हुआ । तत्त्वार्थ पर श्रद्धा होना दुर्लभ है उसका सूत्रकार कथन करते हैं-.
सासर में इस जीव को मनुष्यत्व, श्रुतधर्म का श्रवण, श्रद्धा और संयम में पुरुषार्थ इन चार अंगों की प्राप्ति होना बहुत कठिन है । "
कदाचित् धर्मश्रवण प्राप्त हो जाय तो भी धर्म में श्रद्धा-रुचि होना परम दुर्लभ है । यह श्रद्धा संसार रूपी सागर से पार कराने के लिए नौका जैसी है। कितने ही मनुष्य ऐसे हैं जो मोक्ष मार्ग को सुनकर भी श्रद्धा नहीं होने से भ्रष्ट हो जाते है । अन्यत्र भी कहा
१. जीवाजीवा य बन्धो य, पुण्णं पावाssसवो तहा । संवरो निज्जरा मोक्खो सन्त्येए तहिया नव ॥
अध्ययन २८ गाथा १४ ।।
२. चत्तारि पर मंगाणि, दुल्लहाणीह जन्तुणो । माणुसतं सुई सद्धा, संजमम्मि य वीरियं ॥
उत्त अध्ययन ३, गाथा १ ॥
३. आहच्च संवणं लठ्ठे, सद्वा परमदुल्लहा |
सोच्चा नेयाज्यं मग्गं, बहवे परिभस्सइ || अध्ययन ३ गाथा ९ ॥