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अध्याय २
समियदसण तथा सम्यग्दृष्टि के लिए सम्मत्तदंसी सम्मत्तदंसिण शब्द प्रयुक्त हुए है। दृढ़ श्रद्धान, अहिंसा सम्यक्त्व की नींव है। इसके अभाव में मुनिभाव भी संभव नहीं। शंका, कांक्षा तथा विचिकित्सा ये श्रद्धा/सम्यक्त्व के घातक है । अतएव दृढ़ श्रद्धान, विश्वास रूपी नींव पर मुनिभाव युक्त सम्यक्त्व रूपी भित्ति का निर्माण इस में हुआ है।
आचारांग सूत्र के बाद दूसरा अंग-ग्रन्थ है-सूत्रकृतांग ।
सूत्रकृतांग में सम्यक्त्व विषयगत विचार और विकास कितना हुआ है इस का हम अवलोकन करेंगे।
द्वितीयांग सूत्रकृतांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध का काल आचारांग के समान ही स्वीकार किया गया है। अतः यह भी उतना ही प्राचीन है जितना आचारांग सूत्र । . सूत्रकृतांग में सम्यक्त्व बिषयक विचार जो आचारांग के सदृश है उस का उल्लेख मैंने आचारांग के साथ ही कर दिया है। सम्यक्त्व के स्वरूप का निरूपण इस सूत्र में इस प्रकार किया गया है" श्री अरिहन्त देव के द्वारा भाषित युक्ति संगत शुद्ध अर्थ और पद वाले इस धर्म को सुनकर जो जीव इस में श्रद्धान करते हैं वे मोक्ष
को प्राप्त करते हैं अथवा वे इन्द्र की तरह देवताओं के अधिपति • होते हैं।"
इस बात की प्रतीति इस अवतरण से होती है कि आचारांग की अपेक्षा यहाँ सम्यक्त्व का विषय अधिक स्पष्ट दिखाई देता है । यहाँ यही सूचित है कि मोक्षगामी वहीं हो सकता है जिसे तीर्थंकरोक्त धर्म पर श्रद्धान हो और साथ ही यह भी कहा कि वह धर्म शुद्ध अर्थ और पदों से युक्त हो । इस प्रकार यहाँ सम्यक्त्व का स्वरूप 'श्रद्धान' लक्षित होता है। किंतु यदि शास्त्रों के ज्ञानी होने पर भी १. सोच्चा य धम्म अरिहन्तभासियं, समाहितं अट्ठपदोवसुद्धं । तं सद्दहमाणा य जणा अणाऊ, इंदा व देवाहिव आगमिस्संति ।
- सूत्रकृतांग षष्ठ अध्य०, गा० २९, पृ २८५ ॥