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जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप जो सम्यक्त्व से रहित है उनकी क्रियाएँ वृथा हैं, वे मोक्ष के कारणभूत नहीं हो सकतीं। उसका उल्लेख करते हुए कहा है
“जो पुरुष धर्म के रहस्य को नहीं जानते हैं किंतु जगत में पूजनीय माने जाते हैं एवं शत्रु की सेना को जीतने वाले वीर हैं तथा सम्यग्दर्शन से रहित हैं उनका तप दान आदि में उद्योग अशुद्ध है और वह कर्मबन्धन के लिए होता है।" ___यहाँ तात्पर्य यह है कि सम्यक्त्व के बिना केवल व्याकरण के ज्ञानी, जगत् में पूजनीय हो जाने से वस्तु का सत्य स्वरूप नहीं जाना जाता । उनकी क्रियाएँ कर्म बंधन से युक्त होती हैं।
इस के विपरीत जो सम्यक्त्व-धारी है उनकी ही क्रिया सफल है-जो वस्तु तत्त्व को जानने वाले; महापूजनीय एवं कर्म को विदारण करने में समर्थ है तथा सम्यग्दृष्टि है, उनका तपादि अनुष्ठान शुद्ध तथा कर्म के नाश के लिए होता है। यहाँ 'सफल' शब्द का अर्थ 'कर्मबन्धन से युक्त' लिया गया है तथा 'अफल' कर्माभाव के लिए प्रयुक्त हुआ है। जो सम्यग्दृष्टि है उसकी सभी क्रियाएँ सफल है, वे कर्मों का क्षय करके मुक्ति महल की ओर प्रयाण कराती हैं। साथ ही यह भी स्पष्ट हो रहा है कि ज्ञान से मुक्ति प्राप्त नहीं की जा सकती। जब तक सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं हो जाती तब तक उसकी क्रियाएँ मोक्ष के कारणभूत नहीं हो सकती । इस प्रकार मुनि को ज्ञान प्राप्ति से ही संतुष्ट नहीं होना चाहिये तथा अपनी ज्ञान की गरिमा का गर्व भी नहीं करना चाहिए। कहा भी है१. जे याबुद्धा महाभागा, वीरा असमत्तदंसिणो । असुद्धं तेसि परकंत, सफलं होइ सव्वसो ॥
-वही प्र० श्रु० अध्य० अष्टम, गा० २२, पृ ३६२ ॥ २. जे य बुद्धा महाभागा, वीरा सम्मत्तदसिणो । सुद्धं तेसिं परकंतं, अफलं होइ सव्वसो ॥२३॥
-वही, प्र० श्रु० अष्टम अध्य०, गा० २३, पृ॰ ३६४ ॥