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जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप
यहाँ श्रद्धालु के चार भंग बताये हैं और दो में उनका उपसंहार किया है कि (१) जिस की श्रद्धा शुद्ध है वह वस्तु को चाहे सम्यग् या असम्यग् रूप से ग्रहण करे लेकिन वह सम्यक विचारणा से उसे सम्यकू रूप में परिणमता है और (२) जिस की श्रद्धा दूषित है वह चाहे सत्य को सत्य रूप में भी कदाचित् ग्रहण करे तो भी असद् विचारणा के कारण वह असत् रूप ही है । मिथ्यादृष्टि का ज्ञान भी अज्ञान ही है ।
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इस प्रकार श्रद्धालुओं के भंग बताए गए हैं। सूत्र में बताया गया है कि "भगवान् महावीर स्वयं सम्यक्त्व भावना भावित थे, इन्द्रियों और मन से शांत थे । भगवान् महावीर ने स्वयं आचरित
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किया और सभी को तथाप्रकार
करने का उपदेश दिया । :
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मुनि जीवन सम्यक्त्व से अभिन्न है, सर्वत्र यही दृष्टिगोचर होता है । सम्यक्त्व का स्थान प्रथम है । इसके अभाव में ज्ञान सम्यग्ज्ञान नहीं और सम्यग्ज्ञान नहीं तो चारित्र भी सम्यक नहीं हो सकता । अतः सूत्रकार ने कहा है- " जिस प्रकार भगवान् ने फरमाया है उसको जानकर पूर्णरूपेण सम्यक्त्व के अभिमुख 'बर्ताव करे । इस प्रकार सम्यग्दृष्टि कहते हैं वे सभी प्रवादी तत्त्वदर्शी कर्म को सभी तरह से जानकर दुःख की चिकित्सा में कुशल होकर सावद्य के त्याग का उपदेश करते हैं ।
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इस प्रकार आचारांग सूत्र में सम्यक्त्व विषय पर विचार व विकास पाया जाता है । सम्यक्त्व के लिए यहाँ सम्मत्त, सम्मं, १. " एग गए पहियच्चे से अहिन्नायदंसणे सन्ते ।" आचा० अध्य० ९, उ० १. गा. ११, पृ ५९३ ॥
२. " जहेयं भगवया पवेइयं तमेव अभिसमिच्चा सव्वओ सव्वताए सम्मत्तमेव समभिजाणिज्जा" आचा८अध्य० ६, उ० ३, पृ ४६९* ३. एवमाहु संमत्तदसिणो, ते सव्वे पावाइया दुक्खस्स । कुसला परिण्णमुदाहरति इय कम्मं परिण्णाय सव्वसी ॥
- वही, अ० ४, उ० ३, ट ३१३ ॥