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________________ अध्याय २.. . "तू सम्यक् रूप से विचार कर। इसी तरह संयम में प्रवृत्ति से ही कर्म का नाश होता है। इस जागृत श्रद्धाशील की एवं शिथिलाचारी की गति को बराबर देखो। इस बालभाव में अपनी आत्मा को स्थापित न कर । १ इस प्रकार सम्यग्दृष्टि के कर्तव्य बताकर उनके प्रकारों का भी इस सूत्र में उल्लेख किया है । परिणामों (विचारों) की विचित्रता के अनुसार श्रद्धा और संदेह को लेकर विभिन्न भंगों (प्रकारों) का दिग्दर्शन करते हैं श्रद्धालु महापुरुषों द्वारा समझाए हुए त्यागमार्ग अंगीकार करते समय जिनभाषित सत्य ही है, ऐसा मानने वाले साधक की श्रद्धा कदाचित् अन्त तक सम्यग होती है । (१) पहले सम्यग मानने वाले की श्रद्धा कभी खराब हो जाती है। (२) पहले जिनभाषित को असम्यग मानने वाले की श्रद्धा पश्चात् सम्यक् हो जाती है । (३) पहले असम्बग मानने वाले की श्रद्धा बाद में भी असम्यग् रहती है। (४) जिन· भाषित सत्य ही है" ऐसा मानने वाले के सम्यग अथवा असम्यग दिखने वाले तत्त्व-विचार द्वारा सम्यग् परिणमते है। (५) जिस की । श्रद्धा दूषित है उसको अच्छे या बुरे असम्यग् विचारणा से असम्यग् रूप ही परिणमते है (६)। १. "उवेहमाणे अणुवेहमाणं बूया-उबेहाहि समियाए, इच्चेवं तत्थ संधी ..झोसिओ भवइ, से उट्रियस्स ठियस्स गई समणुपासह इत्थवि बाल भीवे अप्पाणं नो उवदसिज्जा ।" आचा० अ० ५, उ० ५, पृ ४१५. २. "सढिस्स णं समणुन्नस्स संपव्वयमाणस्स समियंति मन्नमाणस्स एगया समया होइ (१) समियंति मन्नमाणस्स पगया असमिया हो। (२) असमियंति मन्नमाणस्स एगया समिया होइ (३) असमियंति मन्नमाणस्स एगया असमिया होइ (४) समियंति मन्नमाणस्स समिया वा असमिया वा समिया होइ उहाए (५) असमियंति मन्नमाणस्स समिया वाअसमिया वा असमिया होइ उवेहाए (६)।” आचा० अ०५, उ० ५, पृ. ४१९ ॥
SR No.002254
Book TitleJain Darshan me Samyaktva ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year1988
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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