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________________ जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप उत्तराध्ययन सूत्र में भी यह उल्लेख है ।' मुनि यथार्थ वस्तु स्वरूप पर ही श्रद्धा करे । यहाँ पर मुनिभाव के साथ श्रद्धा का अनिवार्यतः होना बताया है। मुनिजीवन के साथ श्रद्धा अर्थात् सम्यक्त्व का सहभावित्व दिखाते हुए पुनः कथन किया है- “जो महापुरुष कर्मों से रहित होकर, सब जानता है सब देखता है। परमार्थ का विचार कर पूजादि की अभिलाषा नहीं करता है। संसार की गति-आगति को जानकर जन्म-मरण के मार्ग को पार कर लेता है, मोक्ष में विराजमान हो जाता है।"२ . .. ___मुनि सम्यग्दृष्टि है उसके कर्तव्य क्या है ? उसका स्पष्ट उल्लेख किया है-" रागद्वेषरहित, सम्यग्दृष्टि, शास्त्रों का ज्ञाता मुनि प्राणियों पर दया करके पूर्व-पश्चिम-दक्षिण और उत्तर दिशा में रहते हुए जीवों को धर्मोपदेश दे। धर्म के विभाग बतावे, धर्म का कीर्तन करे। वह मुनि धर्म सुनने के अभिलाषी व सेवा-शुश्रूषा करने वाले साधुओं और गृहस्थों को शांति, विरति-त्याग, क्षमा, मुक्ति, पवित्रता, सरलता कोमलता का, आगम मर्यादा का उल्लंघन न करके उपदेश दे । मुनि विचार कर सब प्राणियों, भूतों, सत्त्वों और सब जीवों को धर्म का कथन करे।" सम्यग्दृष्टि अन्यों को उपदेश देता हुआ इस प्रकार कहे - १. उत्तरा० अध्य० ६, गा० १४|| २. "एस महं अकम्मा जाणइ पासइ पडिलेहाए नावकंखइ इह आगई गई परिन्नाय, अच्चेइ जाइमरणस्स वट्टमग्गं विक्खायरए" अ. ५, उदे. ६, पृ. ४२८. ३. ओए समियदंसणे, दंय लोगस्स जाणित्ता पाईणं, पडीणं, दाहिणं, उदीणं, आइक्वे, विभए किट्टेवेयवी। से अट्ठिएसु वा, अणुट्ठिएसु वा, सुस्सूसमाणेसु पवेयए सन्ति विरई उवसमं, निव्वाणं सोयं अजवियं मदद वियं लाघतियं अणइवत्तियं । सम्वेसिं पाणाणं, सम्वेसिं भूयाण, सव्वेसिं सत्ताणं, सव्वेसिं जीवाणं अणुवीइ भिक्खू धम्माइ. क्खिजा"-आचा अध्य. ६, उददे. ५ ॥
SR No.002254
Book TitleJain Darshan me Samyaktva ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year1988
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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