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अध्याय २..
स्थानों में शंका करने से फंस जाते हैं उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि इस प्रकार करने से भवभ्रमण करते रहते हैं।' __इस प्रकार इससे हमें यह ज्ञात होता है कि सम्बग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र यहाँ सूत्रकार को अभिप्रेत है। मुनिभाव और सम्यक्त्व की अभेदता दृष्टिगोचर होती है। मुनित्व व सम्यक्त्व की एकता का पुनः दिग्दर्शन कराते हुए सूत्रकार कहते है कि “तत्त्ववेत्ता मुनि कल्याणकारी मोक्षमार्ग को जानवर सम्यग्दृष्टि होता हुआ पाप कर्म नहीं करता।"२ यही उल्लेख दूसरे शब्दों में दशवकालिक सूत्र में किया है।
यहाँ भी यह स्पष्ट है कि जो मुनि सम्यग्दर्शन से युक्त है वह मोक्षमार्ग का ज्ञाता होने से पापकर्म नहीं करता। और जो पाप-कर्म करता है, सम्यग्दर्शन से रहित है, उससे मुनित्व का पालन नहीं हो सकता । उस के लिए कहा है____“धैर्यहीन, ममता से आई, विषयासक्त, मायावी, प्रमादी, घर में रहने वालों से सम्यक्त्व या मुनित्व पाला नहीं जा सकता । जो वीर सम्यक्त्वदर्शी/सम्यग्दृष्टि मुनि है वहीं संसार को तिरता है।' . . स्पष्ट है कि मुनिजीवन सम्यक्त्वपूर्वक होता है । पुनः कहा है.." अक्षय वैभव के लिए कोई निमन्त्रण करे, देवता की माया में मुनि श्रद्धा न करे। सब प्रकार से दूर रहकर सत्य वस्तु को समझे"५ १. वही, प्रथम अध्य० उद्दे० २, गा० १०-११, एवं अध्य. १२ एवं अ०१३ २. "तम्हाऽतिविज्जे परमं ति णच्चा सम्मत्तदंसी न करेइ पावं"-आचा०
अध्य० ३, उद्दे॰ २, पृ २१६ ३. दश०, अध्य० १०, गा० ७, एवं अध्य० ४, गा० ९ ॥ ४. न इम्म सकं सिढिलेहिं अदिजमाणेहि, गुणासाएहिं, वंकसमायरेहि, ___पमत्तेहिं गारमावसंतेहिं "वीरा सम्मत्तदंसिणो एस ओहातरे मुणी
तिण्णे मुत्ते विरए वियाहिए त्ति बेमि" आ०अध्य० ५, उ०३. पृ ३८६ ५, आचा० अध्य० ८, उददे० ८, गा० २४.