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जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप
सूत्रकृतांग में भी इस विषय पर प्रकाश डाला है।' दशवैकालिक सूत्र में भी इसी विषय का दूसरे शब्दों में उल्लेख किया है । " आत्मोपम्य की भावना का इस सूत्र में दिग्दर्शन होता है और वह आत्मोपम्य ही ' साम्य ' है । उसी साम्य भावना को लेकर आगे विस्तारपूर्वक कहा है ।
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इस प्रकार तीर्थंकरों द्वारा दिया गया यह उपदेश श्रद्धा को पुष्ट करता है । जहाँ श्रद्धा, विश्वास है वहाँ शंका को तनिक भी स्थान नहीं है । साधक को इस विषय में तनिक भी शंका नहीं करनी चाहिये उसके लिये कहा है कि - " शंका को छोड़कर परीषहों को संहन करके सम्यग्दर्शन को धारण कर ।
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अन्यत्र भी कहा है कि " मुनि ने जिस श्रद्धा के साथ प्रव्रज्या अंगीकार की है उसी श्रद्धा का शंका को छोड़कर यावज्जीवन पालन करें । "५ इसी शंका त्याग का दशवैकालिक सूत्र में भी उल्लेख किया है तथा कहा है कि “ वितिगिच्छा समापन्न " अर्थात् श्रद्धान के फल में शंका करने वाला समाधि प्राप्त नहीं कर सकता है ।
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सूत्रकृतांग एवं दशवैकालिक में भी स्थान-स्थान पर इसी का कथन किया है ।
हरिण जिस प्रकार शंकास्पद स्थानों में निःशंक और निःशंक
१. देखी-सूत्रकृतांग चतु खण्ड प्रथम अध्य० सू० १५, पृ० ८७ ॥ २. दश०, अध्य० ४, गा० २९, एवं अध्य० ६, गा० १० ॥
३. आचा० चतु० अध्ययन, प्रथम उद्देशक ॥
४. चिच्चा सब विसुत्तियं फासे सम्यिदंसणं । आचा. अ. ६ उ.२ पृ. ४५९ ५. जाए सद्धाए णिक्खते तमेव अणुपालेजा विजहित्ता विसोत्तियं । अध्य. १, उद्देशक ३, गाथा १९, पू. ४९
६. वितिमिच्छासमावन्त्रेण अप्पाणेण नो लहइ समाहिं”, आचा० अ० ५, उ०५, गा० १६३.
७. सूत्रकृ० तृतीय अध्य०, उद्दे० ३, गा० १५ । दश० ९, गा० १० ॥