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________________ अध्याय २ १७ जो विषयभोगों में लिप्त है उन्हें जानना चाहिये कि मृत्यु अवश्यंभावी है। जो अपनी इच्छाओं के वशीभूत हैं, असंयमी हैं और परिग्रह में गुद्ध हैं वे ही पुनः पुनः जन्म लेते हैं | जो पाप कर्मों से निवृत्त हैं, वे ही वस्तुतः वासनारहित हैं । भोगैषणारहित पुरुष की निंद्य प्रवृत्ति कैसे हो सकती है ? जो समितियों से समित, ज्ञान सहित, संयत, शुभाशुभदर्शी हैं, ऐसे ज्ञानियों को क्या उपाधि हो सकती है ? सम्यग्दृष्टा के कोई उपाधि नहीं होती, ऐसा ज्ञानी पुरुष कहते हैं । इस प्रकार इस उद्देशक में सम्यक् चारित्र एवं चारित्रवान् का विश्लेषण किया है । टीकाकार ने नियुक्तिकार के आशय को स्पष्ट करते हुए चारों उद्देशकों में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् तप और सम्यकू चारित्र का स्वरूप निर्धारित किया है। जबकि मूल आचारांग में ऐसा कहीं भी लक्षित नहीं होता । · वर्तमान समय में प्रचलित सम्यक्त्व का अर्थ जो श्रद्धान है वह आचारांग सूत्र में दृष्टिगत नहीं होता । चतुर्थ अध्ययन 'सम्यक्त्व' में सम्यक्त्व और मुनिजीवन का एकीकरण किया है । इस प्रकार सम्यक्त्व को मुनि जीवन के समान माना है, श्रद्धान अर्थ में स्पष्ट रूप से तो - नहीं । किंतु इस प्रकार हम मान सकते हैं कि श्रद्धा के बिना मुनिजीवन स्थिर नहीं हो सकता । अतः चारित्र से पूर्व ज्ञान और ज्ञान से पूर्व दर्शन अर्थात् श्रद्धा का होना अनिवार्य है, यह सिद्ध होता है । आचारांग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध के नौ अध्ययन है । चतुर्थ अध्ययन के अलावा पूर्ववर्त्ती और पश्चात्वर्त्ती अध्ययनों में भी इस विषय पर प्रकाश डाला गया है । चतुर्थ अध्ययन में तो 'सम्यक्त्व ' का उल्लेख व अध्ययन का नाम ' सम्यक्त्व' होने के बावजूद भी सम्यक्त्व को स्पष्ट रूप से मुनि आचार कहा गया है । 6 आचारांग में सम्यक्त्व और मुनित्व को समान माना है । संयमी चारित्रवान् मुनि के आचार को ही सम्यक्त्व से अभिप्रेत किया २
SR No.002254
Book TitleJain Darshan me Samyaktva ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year1988
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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