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________________ १६. जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप अहिंसा धर्म का निषेध करते हैं उनका वचन 'अनार्य वचन' कहकर ज्ञानी और अज्ञानियों की गतिविधियों एवं अनुभव के आधार पर धर्मपरीक्षा की है । तीसरे उद्देशक में नियुक्तिकार के अनुसार " तइए अणवज्जतवो न हुं बाल तवेण मुक्खु त्ति " अर्थात् निर्दोष / अनवद्य तप से ही मोक्ष प्राप्ति हो सकती है न कि बाल - अज्ञान तप से । इस प्रकार विश्लेषण किया है । तपस्वी कौन है ? उनके गुण एवं प्रकृति तथा वे किस प्रकार तपश्चर्या कर कर्मक्षय करते हैं उनका विधान किया गया है । जो अहिंसक हैं वे ज्ञानी है । उनकी वृत्तियों का निरीक्षण करें तो ज्ञात होगा कि वे धर्म के विशेषज्ञ होने के साथ सरल व अनासक्त हैं। वे कषायों को भस्मीभूत कर कर्मों का क्षय करते हैं। ऐसा सम्यग्दृष्टि कहते है, क्योंकि “ दुःख कर्मजनित हैं " वे इसे भली-भांति जानते हैं । अतः कर्मस्वरूप जानकर उसका त्याग करने का वे उपदेश देते हैं । जो अरिहंत की आज्ञा के आकांक्षी, निस्पृही, बुद्धिमान पुरुष हैं, वे सर्वात्मदर्शन करके देहासक्ति छोड़ देते हैं । जिस प्रकार जीर्ण काष्ठ को अग्नि शीघ्र जला देती है उसी प्रकार समाहित आत्मा वाला वीरपुरुष कषायरूपी कर्म शरीर को तपश्चर्या द्वारा शीघ्र जला देते हैं । इस प्रकार आचारांग में सम्यक तप का उल्लेख इस उद्देशक में किया है। चतुर्थ उद्देशक में नियुक्तिकार के अनुसार “समासवयणेण नियमणं भणियं" अर्थात् संक्षेप में चारित्र का निरूपण किया है । संयत जीवन कैसा हो ? जो पूर्व संबंधों का त्याग कर विषयासक्ति छोड़ देता है वह । इस प्रकार पुनर्जन्म को अवरुद्ध कर दिया है जिन्होंने ऐसे वीर पुरुषों का यह संयम मार्ग दुरुह है । स्थिर मन वाला ब्रह्मचर्य से युग ऐसा वह वीर पुरुष संयम में रत, सावधान, अप्रमत्त तथा तप द्वारा शरीर को कृश करके कर्मक्षय करने में प्रयत्नशील होता है ।
SR No.002254
Book TitleJain Darshan me Samyaktva ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year1988
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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