________________
अध्याय २.
१५
हिंसा नहीं करनी चाहिये । यही धर्मशुद्ध है, नित्य है, शाश्वत है और जिन प्रवचन में प्ररूपित है ।
इस प्रकार अहिंसा तत्व का सम्यकू एवं सूक्ष्म निरूपण के साथ अहिंसा की कालिक एवं सार्वभौमिक मान्यता, सार्वजनीनता एवं सत्यतथ्यता का सम्यग्वाद के रूप में प्रतिपादन किया है | अहिंसा व्रत को स्वीकार करने वाले साधक को कहाँ कहाँ, कैसे कैसे सावधान रहकर अहिंसा के आचरण के लिए पराक्रम करने चाहिये ? इसका निर्देश भी किया है। इस प्रकार नियुक्तिकार के अनुसार आचारांग के ४ - १ में सम्यग्वाद के परिप्रेक्ष्य में अहिंसा धर्म की चर्चा की है । दूसरे उद्देशक में निर्मुक्तिकार के अनुसार 'बीए धम्मप्पवाइ परिक्खा ' इसका विश्लेषण करतें हुए 'धम्मं प्रवदितुं शीलं येषां ते धर्मप्रवादिनस्त एव धर्मप्रवादिकाः ', अर्थात् विभिन्न धर्म प्रवादियों के प्रवादों में युक्तअयुक्त की विचारणा होने से धर्मपरीक्षा का निरूपण है ।
इस उद्देशक में हिंसा और अहिंसा में युक्त क्या है और अयुक क्या है ? इसकी परीक्षा की गई है । विभिन्न मतावलम्बियों में जो यह कहते हैं कि " यज्ञयागादि में होने वाली हिंसा दोषयुक्त नहीं " उनको बुलाकर पूछा जाय कि दुःख सुख रूप है या दुःख रूप ? तो सत्य तथ्य यही वे कहेंगे कि दुःख ही दुःख रूप है क्योंकि दुःखार्थी कोई प्राणी नहीं, सभी प्राणी सुखार्थी है । अतः हिंसा अनिष्ट एवं दुःखरूप . होने से त्याज्य है, हेय है तथा अहिंसा इष्ट एवं सुखरूप होने से ग्रहण करने योग्य उपादेय है ।
इसी के साथ आस्रव और परिस्रव की परीक्षा के लिए आस्रव पड़े हुए ज्ञानीजन कैसे परिस्रव ( निर्जरा धर्म ) में प्रवृत्त हो जाते हैं तथा परिस्रव (धर्म) का अवसर प्राप्त होने पर भी अज्ञानीजन कैसे आस्रव में फंसे रहते हैं । इस प्रकार आस्रवमग्नजनों को विभिन्न दुःखों का स्पर्श होता है, फलस्वरूप प्रगाढ़ वेदना होती है । इस प्रकार अहिंसा धर्म का आचरण करना / चाहना यह आर्यवचन और जो