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जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप इन एकादश अंग-रूप गणिपिटक में सर्वप्राचीन है-आचारांग । आगमों को सभी चौथी पांचवी शती का मानते हैं किन्तु आचारांग का समय विद्वानों ने ईस्वी पूर्व तीसरी शती माना है। आचारांग की भाषा अर्द्ध-मागधी मानी जाती है।
- सम्यक्त्व क्या है ? वह किसे प्राप्त होता है ? कसे प्राप्त होता है ? इसकी सुरक्षा किस प्रकार की जाय ? आदि । इन प्रश्नों का समाधान इस सूत्र में कहाँ तक किया है ? इसका विचार आवश्यक है(१) आचारांग-मूत्रकृतांग
सम्यक्त्व के विषय में यदि हम जैन धर्म के प्राचीन आगमों में सम्यक्त्व की क्या धारणा थी ? इसकी शोध करें तो जैनागमों में प्राचीनतम माने जाने वाला आचारांग का चतुर्थ अध्ययन जिसका नाम ही 'सम्यक्त्व' है, हमारे समक्ष उपस्थित होता है। हम यहाँ उस अध्ययन का सार प्रस्तुत करते हैं जिससे विदित होगा कि भगवान् महावीर के काल में 'सम्यक्त्व' से क्या अभिप्राय था -
नियुक्तिकार आचार्य भद्रबाहुसूरि ने इस अध्ययन के विषय को को गाथाओं में उद्धृत किया है
पढमे सम्मावाओ वीए धम्मप्पवाइयपरिक्खा । । तइए अ-णवज्जतवो न हु बालतवेण मुक्खु त्ति ।।२१५।। उद्देसंमि चउत्थे समासवयणेण नियमणं भणियं । तम्हा य नाणदसण-तव-चरणे होई जहयव्वं ॥२१६॥
'पढमे सम्मावाओ' प्रथम उद्देशक में सम्यग्वाद का अधिकार है । सम्यग-'अविपरितो वादः सम्यग्वादो-यथावस्थितवस्तवाविर्भावनं' अविपरीत अर्थात् यथार्थ वस्तुतत्त्व का प्रतिपादन हो वह सम्यग्वाद है । इस उद्देशक में हिंसा का स्वरूप बताकर उसका निषेधात्मक रूप अहिंसा का विधान किया है कि जितने भी तीर्थंकर हुए हैं, हुए थे तथा होंगे उन सभी का यही कहना है कि किसी भी प्राणी की