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अध्याय-२
और शिष्य अपने शिष्यों को सौंपते । इस तरह श्रुत की परम्परा भगवान महावीर के निर्वाण के पश्चात् लगभग एक हजार वर्ष तक निरन्तर प्रवाह के रूप में चलती रही। ऐसी संभावना है कि पूर्वाचार्यों ने इसमें कुछ जोड़-तोड़ किया होगा। ... भगवान् महावीर के लगभग एक हजार वर्ष बाद अर्थात् विक्रम की चौथी पाँचवी शताब्दी में देवद्धि गणि ने वलभीनगर में आगमों को पुस्तकारूढ किया।'
इससे पूर्व भगवान् महावीर के निर्वाण के पश्चात् छठे आचार्य के काल में भद्रबाहू के समय में पाटलीपुत्र में वाचना हुई और उसका काल है ई. पू. चौथी शताब्दी का दूसरा दशक । इसके बाद दुष्काल पड़ने से (स्कन्दिलाचार्य के समय) मथुरा में वाचना हुई । पश्चात् वलभी में मथुरावाचनानुसार लेखन हुआ उसका काल ई. ४५३ (मतान्तर से. ई. ४६६) माना जाता है ।
इस वाचना में संकलित आगम आज आगम रूप से मान्य है। किन्तु इस वाचना को दिगम्बरों ने मान्य नहीं किया । वे आगम को विच्छिन्न ही मानते हैं। श्वेताम्बर सम्प्रदायों में स्थानकवासी और तेरापंथी केवल ३२ आगम ग्रन्थों को ही मात्र मूल रूप में जैनागमान्तर्गत गिनते हैं। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय ने ४५ आगम ग्रन्थों को मान्यता दी है।
। अंगप्रविष्ट में द्वादशांग गणिपिटक का उल्लेख है। बाहरवें अंग दृष्टिवाद का विच्छेद भद्रबाहू स्वामि की वाचना के समय ही हो गया था। बारहवें अंग के लुप्त हो जाने से अंगों की संख्या एकादश मानी जाने लगी। इस प्रकार ये एकादश अंग अंग प्रविष्ट' माने जाते हैं तथा इन एकादश अंगों के अतिरिक्त जो आगम ग्रन्थ है उन्हें अंगबाह्य कहा जाता है। इन एकादश अंगों में सम्यक्त्व का विचार व विकास किस प्रकार हुआ ? १. जैन साहित्य का वृहद इतिहास, भाग-१, पं. बेचरदास दोशी,पृ.७