SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 34
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२. जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप स्थान है | सम्यक्त्व - सम्यग्दर्शन के अभाव में ज्ञान सम्यग्ज्ञान नहीं हो सकता । इसीलिए " वाचकवर्य श्री उमास्वाति " ने " तत्त्वार्थाधिगम सूत्र " में सर्वप्रथम उद्घोष किया - " सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्ष - मार्गः " । अतः मोक्षमार्ग का प्रथम सोपान, आधारशिला सम्यक्त्व है । इस की विचारणा को जानने के लिए जैन - साहित्य का अध्ययन आवश्यक है | तो हम देखें जैन - साहित्य में इस का स्वरूप किंस प्रकार से स्थिर हुआ ? 1 जैन - संस्कृति आधुनिक युग में दो धाराओं में बह रही है. १. श्वेताम्बर, २. दिगम्बर | जैन साहित्य में आगमों को अतिप्राचीनं एकमत से स्वीकार किया हैं । दिगम्बर मानते हैं कि आगमकाल के प्रभाव से विच्छिन्न हो गये है किन्तु वेताम्बरों ने वलभी वाचना में संकलित आगमों को स्वीकृत किया है । आगम - प्रन्थ क्या हैं ? आगमों के दो भेद हैं-अंग और अंगबाह्य । उनमें से अंग के विषय में मान्यता है कि आगमों के अर्थ का उपदेश अर्हत् करते हैं और उसको शब्दबद्ध करते हैं उनके प्रमुख गणधर ।' अर्थात् जैन परंपरा के अनुसार प्रधानरूप से अंग आगम तो तीर्थंकरों का उपदेश है किन्तु हमें जो प्राप्त है वह गणधर कृत तदनुसारी शब्दबद्ध आगम है ।" और अंगबाह्य आगमों की रचना तो अंगों के आधार पर स्थविरों ने की है । . इन आगमों की सुरक्षा प्राचीन समय से गुरु शिष्य परम्परा से कण्ठाग्र रूप में की जाती रही । गुरु अपने शिष्यों को सौंपते हैं १. तत्त्वार्थाधिगमसूत्र, सूत्र १. २. अत्थं भासइ अरहा सुत्तं गंथंति गणधरा णिउणं । सासणगस्त हितट्ठाए ततो सुत्तं पवत्तती । आव. निर्युक्ति गाथा १९२१, विशेषावश्यकभाग्य १९१६ ३. जैन दर्शन का आदिकाल, पं. दलसुख मालवणिया, पृ. १.
SR No.002254
Book TitleJain Darshan me Samyaktva ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year1988
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy