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अध्याय १
को 'जिन' कहा जाता था । वैसे जिन भी अनेक हुए हैं— सच्चक, बुद्ध, गोशालक और महावीर । किंतु आज जिनकथित जैनधर्म कहने से मुख्यतया महावीर के धर्म का ही बोध होता है जो रागद्वेष के विजय पर ही मुख्यतया बल देता है । इस प्रकार हम देखते हैं कि जैनधर्म श्रमणधर्म भी है और निर्ग्रन्थ धर्म भी ।
श्रमणधर्म की प्राणभूत भावना है साम्य भावना अर्थात् साम्यदृष्टि । इसी का विशुद्ध रूप सामायिक है । जैन श्रुत रूप से प्रसिद्ध द्वादशांगी या चतुर्दश पूर्व में 'सामाइय' - सामायिक का स्थान प्रथम है । इसकी पुष्टि आचारंग में होती है । इस में जो कुछ कहा गया है उस सब में साम्य, समता या समत्व पर ही पूर्णरूपेण बल दिया है । सामाइय- यह प्राकृत या अर्धमागधी शब्द समता - साम्य या सम अर्थ को लिए हुए हैं । साम्यदृष्टिमूलक और साम्यदृष्टिपोषक जो जो आचार व विचार हैं, उन सभी का समावेश सामायिक में हो जाता है। जैसे ब्राह्मण परम्परा में संध्या एक आवश्यक कर्म है, वैसे ही श्रमण परम्परा अर्थात् जैन परम्परा में बंडावश्यक त्यागी व गृहस्थ के लिए अनिवार्य है । इन छः आवश्यकों में सामायिक प्रथम आवश्यक है । इस सामायिक " का आधार समता या समभाव है ।
'सामायिक' की ऐसी प्रतिष्ठा होने के कारण सातवीं सदी के सुप्रसिद्ध विद्वान् जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने उस पर विशेषावश्यक भाष्य नामक अतिविस्तृत ग्रन्थ लिखकर बतलाया है कि धर्म के अंगभूत श्रद्धा, ज्ञान और चारित्र ये तीनों ही सामायिक है । '
आचारंग में यह साम्यभाव कूट-कूट कर भरा है । श्रमण धर्म के आचार व विचार की नींव साम्यभावना है । आचारांग सूत्र का चौथा अध्ययन ' सम्यक्त्व' नामक है । यहाँ यह सम्यक्त्व साम्यभावना से ही अभिप्रेत है । आत्मौपम्य का दिग्दर्शन इस अध्ययन में विशिष्ट रूप से किया गया है ।
१. विशेषावश्यक भाग्य गा. १९८९.