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________________ जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप श्रमण धर्म की दृष्टि पूर्ण आत्म साम्य की है, इस में भी किसी देहधारी का किसी भी निमित्त से किया जाने वाला वध आत्मवध जैसा ही माना गया है और वध मात्र को अधर्म का हेतु माना है । ب ( ब्राह्मण धर्म का मूल था ब्रह्मन् - उससे ब्राह्मण परम्परा विकसित हुई। इधर श्रमण परम्परा सम' - साम्य, शम अथवा - श्रम से विकसित हुई । ब्रह्मन् के यों तो अनेक अर्थ है किन्तु प्राचीन अर्थ दो हैं - १. स्तुति - प्रार्थना, २. यज्ञ-यागादि कर्म । वैदिक मंत्रों एवं सूक्तों के आधार पर जो नाना प्रकार की स्तुतियाँ व प्रार्थना की जाती है. वह तथा इन्हीं मंत्रों के विनियोग वाला यज्ञ-यागादि कर्म ' ब्रह्मन् ' कहलाता है । इन ऋचाओं का पाठ करने वाला पुरोहित वर्ग एवं यज्ञयागादि संपादित करने वाला पुरोहित वर्ग ब्राह्मण कहलाता है - यह हुई वैदिक परम्परा । जहाँ वैदिक परम्परा में एकमात्र पुरोहित बनने का या गुरुपद का अधिकार ब्राह्मण वर्ग को दिया ठीक इसके विपरीत श्रमण परम्परा में कहा गया कि सभी सामाजिक स्त्री-पुरुष सत्कर्म एवं धर्मपद के समान रूप से अधिकारी हैं। जो प्रयत्न एवं पुरुषार्थ से योग्यता प्राप्त करता है वह वर्ग एव लिंगभेद के होने पर भी गुरुपद का अधिकारी हो सकता है । यह सामाजिक एवं धार्मिक समता की मान्यता ब्राह्मण धर्म की मान्यता से पूर्णतया विरूद्ध थी । इस तरह ब्राह्मण व श्रमणधर्म का वैषम्य और साम्यमूलक इतना विरोध है कि जिससे दोनों धर्मों के बीच संघर्ष होता रहा है, जो कि सहस्रों वर्षों के इतिहास में लिपिबद्ध है । यह विरोध ब्राह्मणकाल में भी था, और बुद्ध और महावीर के समय में भी था और उनके पश्चात् भी चलता आया है । श्रमण संप्रदाय की शाखाएँ और प्रतिशाखाएँ अनेक थीं,. जिनमें सांख्य, जैन, बौद्ध, आजीवक आदि थीं। अन्य शाखाएँ तो शनैः शनैः वेदमूलक हो गई किन्तु जैन और बौद्ध इनसे अछूती रहीं । यह शाखा आगे चलकर निर्ग्रन्थ नाम से प्रसिद्ध हुई । एवं इस विचार के प्रवर्तक
SR No.002254
Book TitleJain Darshan me Samyaktva ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year1988
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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