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________________ अध्याय १. श्रमण परम्परा साम्य पर अधिष्ठित है । यह वैषम्य और साम्य मुख्यतया तीन बातों में देखा जाता है-' १. समाजविषयक, २. साध्यविषयक, ३. प्राणीजगत् के प्रति दृष्टि विषयक । समाजविषयक वैषम्य का अर्थ है कि समाज रचना में तथा धर्माधिकार में वर्ण का जन्मसिद्ध श्रेष्ठत्व व मुख्यत्व तथा इतर वर्णों का ब्राह्मण की अपेक्षा कनिष्ठत्व व गौणत्व । ब्राह्मण धर्म का. वास्तविक साध्य है अभ्युदय, जो कि ऐहिक समृद्धि, राज्य और पुत्र पशु आदि के नानाविध लाभों में तथा इन्द्रपद, स्वर्गीय सुख आदि नानाविध पारलौकिक फलों के लाभों में समाता है। अभ्युदय का साधन मुख्यतया यज्ञधर्म अर्थात् नानाविध यज्ञ है । २ इस धर्म में पशु-पक्षी आदि की बलि अनिवार्य मानी गई है और कहा गया है कि वेदविहित हिंसा धर्म का ही हेतु है। इसके विधान में बलि किये जाने वाले निरपराध पशु-पक्षी आदि के प्रति स्पष्टतया आत्मसाम्य के अभाव की अर्थात् आत्म-वैषम्य की दृष्टि है। इसके विपरीत उक्त तीनों बातों में श्रमण धर्म का साम्य इस प्रकार है। श्रमण धर्म समाज में किसी भी वर्ण का जन्मसिद्ध श्रेष्ठत्व न मानकर, गुण-कर्मकृत ही श्रेष्ठत्व व कनिष्ठत्व मानता है। इसलिए वह समाज रचना तथा धर्माधिकार में जन्मसिद्ध वर्णभेद का आदर न कर के गुण कर्म के आधार पर ही सामाजिक व्यवस्था करता है। अतएव उनकी दृष्टि में एक सद्गुणी शूद्र भी दुर्गुणी ब्राह्मण से श्रेष्ठ है । और धार्मिक क्षेत्र में योग्यता के आधार पर हर एक वर्ण का पुरुष या स्त्री समान .. रूप से उच्च पद का अधिकारी है। श्रमणधर्म का अन्तिम साध्य ब्राह्मण धर्म की तरह अभ्युदय न होकर निःश्रेयस है। जिसका अर्थ है कि ऐहिक पारलौकिक नानाविध सब लाभों का त्याग सिद्ध करने वाली ऐसी स्थिति, जिस में पूर्ण साम्य प्रकट होता है और कोई किसी से कम योग्य या अधिक योग्य नहीं रहने पाता । जीव जगत् के प्रति १. दर्शन और चिन्तन, पृ. ११६-११७. २. शांकरभाष्य, पृ. ३५३ एवं योगसूत्र व सांख्य तत्व कौमुदी.
SR No.002254
Book TitleJain Darshan me Samyaktva ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year1988
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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