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जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप पार्श्वनाथ से पूर्व भी प्रचलित था। यजुर्वेद में ऋषभदेव, अजितनाथ
और अरिष्टनेमि इन तीनों तीर्थंकरों के नामों का निर्देश है। भागवत पुराण भी इस बात का समर्थन करता है कि ऋषभदेव जैनधर्म के संस्थापक थे।' इस प्रकार जैनेतर साहित्य से भी यह पुष्टि होती है कि 'ऋषभदेव जैनधर्म के संस्थापक थे।' अतः जैन धर्म भगवान् महावीर व पाश्वनाथ से तो प्राचीन है यह हम निश्चित रूप से कह सकते हैं।
भगवान पार्श्वनाथ एवं भगवान महावीर के समय में जैन धर्म को निम्रन्थ धर्म कहा जाता था। साथ ही इसे श्रमणधर्म भी कहते थे। उस समय एकमात्र जैन धर्म ही श्रमणधर्म न था बल्कि श्रमणधर्म की अन्य शाखाएं भी भूतकाल में थीं, और अद्यावधि बौद्धधर्म की शाखाएँ जीवित हैं अर्थात् बौद्धधर्म को भी श्रमणधर्म कहा जाता था। किन्तु जैन धर्म या निम्रन्थ धर्म में श्रमणधर्म के सामान्य लक्षणों के होते हुए भी आचार-विचार की कुछ ऐसी विशेषताएँ हैं जो कि उसे श्रमणधर्म की अन्य शाखाओं से पृथक करती हैं। अब हम देखेगें कि श्रमणधर्म की क्या विशेषताएं है जो उसे ब्राह्मण धर्म से अलग करती हैं। उस समय दो परम्पराये प्रचलित थीं- १. ब्राह्मण, २. श्रमण । इन दोनों परम्पराओं में ऐसे तो छोटे-बडे अनेक विषयों में अन्तर है किन्तु विशिष्ट अन्तर यह है कि ब्राह्मण, वैदिक परम्परा वैषम्य पर प्रतिष्ठित है तो
1. There is evidence to show that so far back as the first Century B.C, there were people who were worshipping Rishabhadeva, the first Tirthankara. There is no doubt that Jainism prevailed even before Vardhamana or Parshvanatha. The Yajurveda mentions the names of three Tirthankaras-Rishabha, Ajitnatha and Aristanemi.
The Bhagavata Puran endorses the view that Rishabha was founder of Jainlsm.
-Indian Philosophy, Vol. I, p. 287.