________________ साधुवाद पूज्य साध्वी श्री सुरेखा श्री जी म.सा. ने बड़े परिश्रम से 'जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप' विषय को लेकर Ph.D.उपाधि के लिए शोध प्रबन्ध लिखा है। सम्यक्त्व के विषय में सर्वांगी विवेचना का यह प्रथम प्रयास है / इसमें सर्व प्रथम जैन आगमों में सम्यक्त्व के विचार का जो क्रमिक विकास हुआ है उसका निरूपण है। केवल श्रद्धा अर्थ में सम्यक्त्व शब्द का अर्थ मौलिक नहीं है। जीवन में जो कुछ सम्यक् हो सकता है, उसी का सम्बन्ध सम्यक्त्व से है। किन्तु जब मोक्ष के उपायों की विशिष्ट चर्चा का प्रारम्भ हुआ तब श्रद्धा और सम्यक्त्व का एकीकरण हुआ और वह विस्तृत अर्थ छोड़ कर संकुचित अर्थ में प्रयुक्त होने लगा। ... किन्तु आचार्य कुन्दकुद ने पुनः सम्यक्त्व या दर्शन को अपने मूल रूप में प्रतिष्ठापित किया और भारपूर्वक निरूपित किया कि मोक्ष का मूल कारण तो दर्शन ही है। यहाँ दर्शन मात्र श्रद्धा अर्थ में नहीं है किन्तु सकल सम्यक् का समुच्चय ही है। इसी में से दर्शन के दो भेद भी फलित हुए है - व्यावहारिक दर्शन या श्रद्धा और नैश्चयिक दर्शन अर्थात् जो मोक्ष का साक्षात् कारण है, परम्परा से नहीं। लेखिका ने जैन आगम और आगमेतर ग्रन्थों का आश्रय लेकर तो सम्यक्त्व की विवेचना की है। तदुपरान्त जैनेतर दर्शन में भी जो श्रद्धा का स्थान है उसकी भी तुलनात्मक विवेचना की है। सम्यक्त्व की विशिष्ट विवेचना के लिए यह ग्रंथ प्रथम सोपान बन सके ऐसी योग्यता इसमें है। विद्वानों से प्रार्थना है कि वे इसे पढ़कर सम्यक्त्व के वास्तविक विचार-विकास की यात्रा का गंभीर विवेचन करें / सम्यक्त्व की अग्रिम विचारणा में यह ग्रन्थ अत्यन्त उपयोगी होगा, ऐसा मेरा मत है / साध्वीजी ने अपना यह प्रथम प्रयत्न करके विद्वानों के लिए विशेष विचारणा का मार्ग सुगम कर दिया है / 20/6/87 दलसुख मालवणिया भूतपूर्व निर्देशक ला.द.भा. संस्कृति विधामंदिर अहमदाबाद (गुज.) भरत प्रिन्टरी, न्यु मारकेट, पांजरापोल, रीलीफ रोड, अहमदाबाद 380001