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तीन गुप्ति
- योगों का जो प्रशस्त निग्रह है वह गुप्ति है । यह तीन प्रकार की है - मन, वचन और काया । त. सू. ३३५.
जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप
सहिंसा
- अपनी रक्षार्थ स्वयं चलने फिरने की शक्ति वाले जीव त्रस कहलाते हैं । दोइन्द्रिय से संज्ञीपंचेन्द्रिय तक के जीव त्रस हैं, उनकी हिंसा करना हिंसा है । जै. सि. को . ३ / ३९७.
दर्शनावरणीय
-- जैन संमत आठ कर्मों में यह दूसरा कर्म है । जो पदार्थ के दर्शन में बाधक हो अथवा दर्शनगुण के आवारक कर्म को दर्शनावरणीय कर्म कहते हैं । जै. ल. २ / ५१५.
दलिक
- कर्मपुद्गल के समूह को दलिक कहते हैं ।
द्रव्यार्थिक नय
- देखो नय ।
नय
- जिससे वस्तु के एक अंश का बोध हो वह नय कहलाता है । इसके मुख्य द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दो भेद हैं । वस्तु सामान्य अंश को ग्रहण करे वह द्रव्यार्थिक नय एवं विशेष अंश को ग्रहण करे वह पर्यायार्थिक नय है । तं. सू. १३. निदान कर्म
- अपने चित्त में संकल्प करना कि मेरी तपस्या से मुझे अमुक फल प्राप्त हो, इसे निदान अथवा नियाणा कर्म कहते हैं । जै. सि. बो. सं. ३/२१५.
निर्ग्रन्थ प्रवचन
-जिसमें राग द्वेष की गांठ नहीं है उसे निर्ग्रन्थ कहते हैं अर्थात् वीतराग ने जो कहा है उनके वचन निर्ग्रन्थ प्रवचन हैं ।