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________________ परिशिष्ट-. રક૭ घर्षण धोलन्याय -नदी के किनारे पर जो पत्थर हैं वे पानी की रगड़ से गोल हो जाते हैं उस प्रक्रिया को घर्षण-धोलन्याय कहा जाता है । चतुर्दशपूर्व -तीर्थ का प्रवर्तन करते समय तीर्थकर भगवान् जिस अर्थ का गणधरों को पहले पहल उपदेश देते थे अथवा गणधर पहले-पहले जिस अर्थ को सूत्र रूप में गूंथते थे उन्हें पूर्व कहा जाता है । ये पूर्व चौदह हैं । जै. सि. बो. सं. ५/१२. चल-मलिन-अगाढ दोष . -ये सम्यग्दर्शन के दोष हैं। कुछ काल स्थिर रहकर चलायमान हो जावे वह चल दोष है । जै. सि. को. २/२७९. शंकादि दूषणों से कलंकित हो वह मलिन दोष है, जै. सि. को. ३/२९९. वृद्धपुरुष के हाथ की लकड़ी के कम्पन के सदृश जो सम्यग्दर्शन में स्थित होने पर भी सकम्प है वह अगाढ़ वेदक सम्यग्दर्शन है । - वहीं, १/३३. . चौबीस दण्डक -स्वकृतं कर्मों के फल भोगने के स्थान को दण्डक कहते हैं। संसारी - जीवों के चौबीस दण्डक हैं । जै. सि. बो. सं. ६/२०५, जघन्य . . -सबसे कम प्रमाण को जघन्य कहते हैं। जीवनिकाय -निकाय शब्द का अर्थ है राशि। जीवों की राशि जीवनिकाय है । इनके छः भेद हैं-पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, असकाय । जे. सि. बो. सं. १/६३-६४. शानावरणीय कर्म -जैन संमत आठ कर्मों में प्रथम कर्म है । बान को ढांकने वाला कर्म ज्ञानावरणीय है । जै. ल. २/४७६.
SR No.002254
Book TitleJain Darshan me Samyaktva ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year1988
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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