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जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप
-इसे मतिज्ञान का भेद माना है । यद्यपि साधारणतः प्रतीति में नहीं आता, परन्तु इन्द्रियों द्वारा पदार्थ को जानने के क्रम में आता है उसमें अवग्रह के पश्चात् आता है । वस्तु के अस्पष्ट ग्रहण को स्पष्ट करने के प्रति उपयोग की उन्मुखता विशेष को ईहा कहते हैं । जै. सि. को. भा.-१/३६३. उहा, अपोह, मार्गणा, गवेषणा और मीमांसा ये ईहा के नामान्तर हैं । जै. ल. १/२४२..
उपशान्ताद्धा -जिस काल में मिथ्यात्व उपशान्त रूप में रहता है उसे उप
शान्ताद्धा कहते हैं । जै. ल. १/२७९: एकल-विहार प्रतिमा -जिनकल्प प्रतिमा अर्थात् एक मासिकी प्रतिमा अंगीकार करके
साधु के अकेले विचरने रूप अभिग्रह को एकल-विहार-प्रतिमा कहते हैं । जै. सि. बो. सं. ३/३९.
कषाय
-आत्मा के भीतरी कलुष परिणाम को कषाय कहते हैं । क्रोध,
मान, माया, लोभ ये चार कषाय प्रसिद्ध हैं । जै. सि. को २/३३. कोटाकोटी -सौ से गुणित लक्ष को (१०००००x१००) कोटी कहते हैं। कोटी
को कोटी से गुणा करें तो कोटाकोटी होता है । जै. ल. २/३७४. गण -जो साधु स्थविर-मर्यादा के उपदेशक या श्रुत में वृद्ध होते हैं,
उनके समूह को गण कहते हैं । जै. ल. २/४०६. गवेषणा
-देखो ईहा।