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परिशिष्ठ-२ अपोह -जिसके द्वारा संशय के कारणभूत विकल्प को दूर किया जाय, ऐसे
ज्ञान विशेष को अपोह अपीहा कहते हैं। जै. ल. ११०३. अबहुश्रुत-बहुश्रुत -जिसने आचार कल्प का अध्ययन नहीं किया अथवा पढ़करके भी उसे भुला दिया है वह व्यक्ति अबहुश्रुत एवं इसके विपरित बहुश्रुत
है । जै. ल. १)१०९ अर्द्धपुदगल परावर्तन -जीव पुद्गलों का ग्रहण करके शरीर, भाषा, मन और श्वासोच्छ्वास रूप में परिणत करता है । जब कोई जीव जगत में विद्यमान समग्र पुद्गल परमाणुओं को आहारक शरीर के सिवाय शेष सब शरीरों के रूप में तथा भाषा, मन और श्वासोच्छवास रूप में परिणत करके उन्हें छोड़ दे-इसमें जितना काल लगता है, उसे पुद्गल परावर्तन तथा इससे आधे काल को अर्द्धपुद्गल परावर्तन कहते हैं
त. सू. (संघवी ‘सुख.) १५. (दि.) - अस्तिकाय .. -जैनागम में पंचास्तिकाय बहुत प्रसिद्ध हैं । जीव, पुद्गल, धर्म, - अधर्म, आकाश और काल ये छः द्रव्य स्वीकार किये गये हैं । - इनमें कालद्रव्य तो प्रदेश-परमाणु मात्र प्रमाणवाला होने से
कायवान नहीं है। शेष पांच द्रव्य अधिक प्रदेश प्रमाण वाले होने .. के कारण कायवान हैं। वे पांच अस्तिकाय हैं।
जै. सि.को. भा. १. १/२२०. आतापना लेना ___ -यह कायक्लेश तप का अंग है । इसमें खड़े रहकर, एक पार्श्व
मृत की तरह सोकर, वीरासनादि से बठकर शीत, बात, ताप
आदि को जानबूझ कर सहते हैं । आवली -यह काल का एक प्रमाण विशेष है। जघन्य युक्तासंख्यात समयों की एक आवली होती है । जै. सि. को. भा.-१/२९३.