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जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप किया है, उस से जो कुछ समझा है, उस पर तर्क, न्याय और युक्ति के आधार से चिन्तन-मनन करना पड़ता है। यह हुई दूसरी भूमिका। उसके पश्चात् विशेष एकाग्रता और क्लेशमुक्त चित्त में वस्तु के हाई में प्रवेश करने का प्रयत्न करना पड़ता है। यह हुई तीसरी भूमिका । ये तीनों भूमिकाएँ यथावत् सिद्धं न हो तब तक दर्शन या साक्षात्कार की भूमिका कभी सिद्ध नहीं होती। और इन तीन भूमिकाओं के सिद्ध होने पर दर्शन होने में विलम्ब नहीं होता। इस प्रकार देखा जाय तो दर्शन यह तत्त्वबोध का शिखर है । तत्त्वजिज्ञासा, तत्त्वचिन्तन, तत्त्वविचारणा और तत्त्वमीमांसा जैसे शब्द ये दर्शन की कक्षा के पूर्व का मानसिक व्यापार सूचित करते है न कि दर्शन व्यापार ।'
तत्त्वदर्शन यह वास्तव में योगिज्ञान है । जो किं ऋतम्भराप्रज्ञा या केवलज्ञानदर्शन के नाम से विभिन्न परम्पराओं में ज्ञातव्य है। किन्तु इसके साथ ही सभी परम्पराओं में दर्शन के बिना भी ऐसे दर्शन के प्रति होने वाली दृढ श्रद्धा को भी दर्शन रूप में जानने में आया है। इस प्रकार दर्शन. शब्द का प्रारम्भिक रूप श्रद्धा अवस्था में स्वीकार कर सकते है तथा साक्षात्कार अर्थात् आत्मदर्शन इसकी अन्तिम अवस्था के रूप में भी मान्य कर सकते है। ___अब हम परम्परासम्मत विचार सरणी में जन दर्शन को देखेंगे। जैन कौन ? जैन दर्शन का इतिहास और इसके प्रवर्तक कौन है ? जैन दर्शन की शाब्दिक व्याख्या में 'जैन' किसे कहा जाय ? तो
१. भारतीय तत्त्वविद्या, पृ. ७. २. ऋतम्भरा तत्र प्रज्ञा । श्रुतानुमानप्रज्ञाभ्यामन्यविषया विशेषार्थत्वात् ।
योगसूत्र, १.४८-४९. मोक्षक्षयात् ज्ञानदर्शनावरणन्तरायक्षयाश्च केवल.म ! तत्त्वार्थसूत्र १०.१.
कुसल चित्तसम्पयुत्तं विपस्सना जाणं पा। विसुद्धिमग्ग १४ २. ३. तत्वार्थश्रद्धानम् सम्यग्दर्शनम् । तत्त्वार्थसूत्र १.१