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अध्याय ३
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रखना अत्यावश्यक है । ईश्वर कृपापात्र वही व्यक्ति हो सकता है। जिसने ईश्वर के आदेशानुसार जीवन जीया हो और जिसने अपने पाप का सच्चा प्रायश्चित किया हो ।
कई ईसाई विचारकों का मत है कि मुक्ति श्रद्धा से प्राप्त होती है या कर्त्तव्यों अथवा कार्यों से । इस सम्बन्ध में विविध विचार प्रचलित हैं । सामान्यतया सत्य तो यही है कि ईसाई धर्म श्रद्धा और विश्वास का धर्म है पर कर्त्तव्य भी वहाँ उतने ही महत्त्वपूर्ण हैं । हकीकत में तो व्यक्ति के कर्त्तव्य उसके विश्वास की पाराशीशी के सदृश है और व्यक्ति अपने धार्मिक विश्वास में कितका निष्ठावान् और अड़ग है; दर्शाती है । अतः यह कहना उचित है धर्म में मुक्ति प्राप्ति में श्रद्धा और कार्य दोनों ही महत्त्वपूर्ण है ।' ईसाई धर्म में कहा गया है कि " साधुजन व गृहस्थजन दोनों के लिए ही मुक्ति मार्ग खुला है । जो विश्वास और श्रद्धा से प्रभु के आदेशों का पालन करके, पापों का विनाश करता है तथा नवीन पापकर्मों में प्रवृत्त ' नहीं होता है वही मुक्तिमार्ग की ओर बढ़ सकता है । "
यहाँ स्पष्ट दिखाई देता है मुक्ति के लिए ईसाई धर्म में श्रद्धा को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है तथा आचारांग सूत्र सदृश " सम्मत्तंसी न करेइ पावं" से यह तुलनीय है कि पाप कर्मों को त्यागना अनिवार्य है । दूसरा तथ्य यह हमारे सम्मुख आता है कि गृहस्थ व साधु दोनों श्रद्धा के अधिकारी हो सकते हैं। श्रद्धा से क्या नहीं हो सकता ? उससे सम्बन्धित स्वयं ईसा मसीह के साथ घटित घटना का उल्लेख है कि “ एक बार एक व्यक्ति ईसा के पास आया और पैरों में गिरकर गिड़गिड़ाकर कहने लगा - प्रभु मेरे पुत्र पर दया करो वह व्याधिग्रस्त है तथा बहुत पीड़ित है । आपके शिष्य भी उसे रोगमुक्त
१. वही, पृ० १७७ ॥ २. वही, पृ० १७७ ।।