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जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप
होता है । पुनरूत्थान तो मुक्तिकार्य की सफलता को सिद्ध करता है । सैद्धान्तिकरूप से संतपौलुस पूर्वोक्त अर्थ में विश्वास को मुक्ति-प्राप्ति की शर्त मानते हैं । विश्वास को इसलिए मुक्ति की शर्त मानते हैं, क्योंकि मुक्ति परमेश्वर की ओर से अनुग्रह का दान ही है । फिर, वरदान को प्राप्त करने की उपर्युक्त मनोवृत्ति विश्वास जैसी ग्रहणशील भावना ही हो सकती है ।
विश्वास और कर्म का विरोध इस बात से संबंध रखता है यदि वास्तव में मुक्ति ईश्वर के अनुग्रह का फल है, तो मानव कठोर परिश्रम करने पर भी उसे प्राप्त करने में असमर्थ रहता है । ईसा के मुक्ति-कार्य के अभाव में मानव साधना की सिद्धि प्राप्त करने में असफलता अनिवार्य है । इसी अर्थ में कार्य व्यर्थ है; विश्वास ही मुक्तिदायक हो सकता है । " जो कर्म नहीं करता, किंतु उसमें विश्वास रखता है जो अधर्मी को धार्मिक बनाता है, तो वह अपने विश्वास के कारण धार्मिक माना जाता है ।" इस संदर्भ में यह न भूला जाय कि संत पौलुस विशेष रूप से पूवार्द्ध का कर्मकाण्ड व्यर्थ समझ हैं । जब तक मुक्तिकर्त्ता ईसा का आगमन नहीं हुआ था, मुक्ति की संभावना ही नहीं हो सकी थी । इसलिए हम मानते हैं कि संहिता के कर्मकाण्ड द्वारा नहीं, बल्कि विश्वास द्वारा मनुष्य पापमुक्त होता है । कहने की जरूरत नहीं है कि कार्यरहित विश्वास भी निष्फल ही है । यह भी सत्य है कि साधना के अभाव में मानव मुक्ति को नहीं अपना सकता है । इसलिए कर्मों के अभाव में विश्वास अपने आप में निर्जीव है । विश्वास मानव की ओर से मुक्ति दान प्राप्त करने के लिए ग्रहणशीलता है । '
डॉ भास्कर गोपालजी देसाई के अनुसार मुक्तिमार्ग में प्रयाण करने के लिए प्रभु में और जीसस (ईसा) में एवं प्रभु की क्षमाशीलता तथा कृपाभावना पर श्रद्धा रखना और हृदय की पवित्रता १. वही ॥
२. धर्मो नुं तुलनात्मक अध्ययन, पृ० १७७ ॥