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जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप ही मुख्य माना है । इसका कारण यह है कि ज्ञान का आविर्भाव होने के लिए शुद्ध अतःकरण की आवश्यकता होती है और भगवत् कामरूप भक्ति अन्य समस्त कामनाओं को नष्ट करने का कारण होने से अन्तःकरण शुद्धि का प्रधान साधन है । भागवतकार ने ज्ञान और भक्ति का सामंजस्य किया है।'
वास्तव में ज्ञान और भक्ति में कोई तात्विक भेद नहीं है, भक्ति की पराकाष्ठा ज्ञान है और ज्ञान की पराकाष्ठा भक्ति है । जहाँ भक्ति को ज्ञान से श्रेष्ठ बतलाया गया है वहाँ भक्ति का अर्थ साधन भक्तिं . है और जहाँ ज्ञान को भक्ति से श्रेष्ठ बताया गया है वहाँ ज्ञान का अर्थ परोक्ष ज्ञान है । पराभक्ति और परमज्ञान दोनों एक ही वस्तु हैं । श्रीमद्भागवत में स्थान स्थान पर भक्ति और ज्ञान का वर्णन हुआ है। ज्ञान और भक्ति दोनों अंतरंग भाव है । इसीलिए अंतरंग में रहने वाला परमात्मा का साक्षात्कार करते हैं । परंतु इस विवेचन से यह न समझना चाहिये कि श्रीमद्भागवत में भक्ति का वर्णन साधन रूप में ही हुआ है। कई स्थल पर तो भागवतकार ने ज्ञान और मुक्ति से बढ़कर भक्ति को बतलाया है । कहा है कि "भगवान् भक्त को मुक्ति भी सहज में दे देते हैं परंतु भक्ति योग को वे सइज में नहीं देते ।”3 ____ भागवत माहात्म्य में भक्ति नारद से कहती है कि “मेरा नाम भक्ति है, ये ज्ञान और वैराग्य नामक मेरे पुत्र है ।" " यहाँ भागवतकार ने ज्ञान और वैराग्य से भक्ति का माहात्म्य अधिक बताया है । जिस प्रकार जनदर्शन में सम्यग्दर्शन और सम्यश्चारित्र से पूर्ववर्ती स्वीकृत किया है उसी प्रकार यहाँ भागवत में ज्ञान और वैराग्य की जन्मदात्री भक्ति को बताया है । यह कथन जैन मान्यता से साम्य रखता है। १. डॉ० हरबंशलाल शर्मा, भागवत-दर्शन, पृ० १३७-१३८ ॥ २. वही, पृ० १३७-१३८ । ३. मुक्तिं ददादि कर्हिचित्स्म न भक्ति योगम् , भाग०, ५-६-१८ ।। ४ भागवत माहात्म्य, अध्याय १, श्लोक ४५ ।।