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अध्याय ३.
• कर देता है । जिस प्रकार अग्नि से तपाए जाने पर सोना मैल को त्याग कर अपने स्वच्छ स्वरूप को प्राप्त हो जाता है उसी प्रकार मेरे भक्तियोग के द्वारा आत्मा भी कर्मवासना से मुक्त होकर मुझे भगवान् को प्राप्त हो जाता है।'
यहाँ स्पष्ट है कि भक्ति से रहित ज्ञान और वैराग्य तप-दान आदि निष्फल है । जैसाकि आचारांग-सूत्रकृतांग आदि जैनागमों में भी उल्लेख है कि सम्यग्दर्शन के बिना ज्ञान चारित्र एवं धार्मिक अनुष्ठान निष्फल है | व्यर्थ है । इस प्रकार यहाँ समानता दृष्टिगत होती है।
भक्ति से मन कितना निश्चल होता है उसका उल्लेख किया है कि "जो मोक्ष के स्वामी भगवान् श्रीहरि की भक्ति करता है वह तो अमृत के समुद्र में खेलता है । छोटी तलैया में भरे गंदे जल के सदृश किसी भी भोग में या स्वर्गादि में उसका मन चलायमान नहीं होता । जैसे धधकती हुई आग लकड़ियों के बड़े ढेर को जलाकर खाक कर देती है, वैसे ही मेरी भक्ति भी समस्त पापराशियों को पूर्णतया जला देती है। - इस प्रकार उपरोक्त उद्धरणों से स्पष्ट होता है कि श्रीमद्भागवत में भक्ति को सर्वोत्कृष्ट बताया है । साथ ही इसमें ज्ञान वैराग्य और भक्ति से मुक्त नष्कर्म्य का आविष्कार किया गया है तथा भक्तिसहित ज्ञान का निरूपण हुआ है । श्रीमद्भागवत के तीसरे, चौथे, सातवें
और बारहवें स्कधों में जहाँ कहीं ज्ञान का प्रसंग आया है वहाँ बड़ी ‘युक्ति और अनुभव की भाषा में निर्गुण तत्त्व का ही विवेचन हुआ है । ज्ञान की अंतरंग साधना में श्रवण, मनन निदिध्यासन को विशेष स्थान देने पर भी “न तत्रोपायसहस्राणाम्" इत्यादि कहकर भक्ति को १ भाग०, ११-१४-२०-२० ॥ २. भाग०, ६-१२ २१ ।। ३. वही, ११-१४-१९ ॥