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जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण के प्रति परम प्रेममयी भक्ति हो जाती है, जिससे जीव के शोक, मोह और भय नष्ट हो जाते है ।'
यहाँ स्पष्ट होता है कि भक्ति से अनर्थों का उपशम हो जाता है तथा शोक, मोह और भय नष्ट हो जाता है । अज्ञान की निवृत्ति भी इसी से होती है उसका कथन है कि उनके भजन से जन्म-मृत्यु.. के चक्कर में डालने वाले अज्ञान का नाश हो जाता है । ... भक्ति के विषय में स्वयं श्रीकृष्ण उद्धव जी से कहते हैं कि "उद्धव ! मेरी बढी हुई भक्ति जिस प्रकार मुझको सहज ही प्राप्त करा सकती है उस प्रकार न तो योग, न ज्ञान, न धर्म, न वेदों का स्वाध्याय, न तप और न दान ही करा सकता है । मैं सन्तों का प्रिय आत्मा हूँ, एकमात्र श्रद्धा सम्पन्न भक्ति से ही मेरी प्राप्ति सुलभ है । दसरों की तो बात ही क्या कुत्ते का मांस खाने वाले चाण्डालादिकों को भी मेरी भक्ति पवित्र कर देती है, मनुष्य में सत्य और दया से युक्त धर्म हो तथा तपस्या से युक्त विद्या भी हो परंतु मेरी भक्ति न हो तो वे धर्म और विद्या उनके अन्तःकरण को पूर्णरूप से पवित्र नहीं कर सकते। मेरे प्रेम से जब तक शरीर पुलकित नहीं हो जाता, हृदय द्रवित नहीं हो उठता, आनंद के आंसुओं की झड़ी नहीं लग जाती तब ऐसी मेरी भक्ति के बिना अन्तःकरणं कैसे शुद्ध हो सकता है ? भक्ति के आवेश में जिसकी वाणी गद्गद् हो गई है, चित्त द्रवित हो गया है, जो कभी रोता है, कभी हसता है, कभी संकोच छोड़कर ऊँची
आवाज से गाने लगता है और कभी नाच उठता है ऐसा मेरा भक्त स्वयं पवित्र है इसमें तो कहना ही क्या, वह तीनों लोकों को पवित्र १. अनर्थोपशमं साक्षादभक्तियोगमधोक्षजे । लोकस्याजानतो विद्वांश्चक्रे सात्वतसहिताम् । यस्यां वै श्रूयमाणायां कृष्णे परमपुरुषे । भक्तिरूत्पद्यते पुंसः शोक मोहभयापहा ॥ वही, १-७-६-७॥ २.तं निवतो नियतार्थों भजेत । संसारहेतूपरमश्च यत्र । वही, २-२-६ ।।