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________________ अध्याय ३ २१९ की भावना बांध लेता है।'' इस प्रकार ज्ञानमार्ग व भक्तिमार्ग दोनों में ही श्रद्धा का होना अनिवार्य माना गया है। ___डॉ० राधाकृष्णन् गीता विषयक श्रद्धा का विवेचन करते हुए कहते हैं कि "श्रद्धा विश्वास । ज्ञान प्राप्त करने के लिए श्रद्धा आवश्यक है। श्रद्धा अंधविश्वास नहीं है। यह आत्मा का ज्ञान प्राप्त करने के लिए महत्त्वाकांक्षा है। यह ज्ञान के उस अनुभवगम्य आत्मा का प्रतिबिम्ब है, जो हमारे अस्तित्त्व के गंभीरतम स्तरों में निवास करता है। यदि श्रद्धा स्थिर हो, तो हमें यह ज्ञान की प्राप्ति तक पहुँचा देती है। ज्ञान परम ज्ञान के रूप में संदेहों से रहित होता है, जबकि बौद्धिक ज्ञान में, जिससे हम इन्द्रियों द्वारा प्रदान की गई जानकारी पर और तर्क से निकले निष्कर्षों पर निर्भर रहते हैं, संदेहों और अविश्वास का स्थान रहता है । ज्ञान इन साधनों द्वारा प्राप्त नहीं होता । हमें उसे आन्तरिक रूप से अपने जीवन में लाना होता है और बढ़ते हुए उसकी वास्तविकता तक पहुँचना होता है। उस तक पहुँचने का मार्ग श्रद्धा और आत्म संयम में से होकर है।"२ ।। . अन्य स्थल पर भी श्रद्धा के लिए कहते हैं कि "श्रद्धा किसी विश्वास • को ही स्वीकार कर लेने का नाम नहीं है। यह तो निश्चित आदर्श के लिए मन की शक्तियों के एकाग्रीकरण द्वारा आत्मा को प्राप्त करने का प्रयत्न हैं।" "श्रद्धा मानवता पर पड़ने वाला आत्मा का दबाव है। यह वह शक्ति है, जो मानवता को न केवल ज्ञान की दृष्टि से, अपितु आध्यात्मिक जीवन की समूची व्यवस्था की दृष्टि से उत्कृष्टतर की ओर बढ़ने की प्रेरणा देती है । सत्य की आन्तरिक अनुभूति के रूप में आत्मा उस लक्ष्य की ओर संकेत करती है, जिस पर पूरा प्रकाश बाद में पड़ता है।" जैनदर्शन सम्यग्दर्शन के पश्चात् सम्यग्ज्ञान स्वीकार करता है १. वही, पृ० ४३० ॥ २. भगवद्गीता, अध्याय ४, पृ० १७३ ॥ ३. वही, अध्याय १७, पृ० ३३३ ।।
SR No.002254
Book TitleJain Darshan me Samyaktva ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year1988
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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