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जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप उसी प्रकार गीता में भी श्रद्धा के पश्चात् ज्ञान का अस्तित्व माना है । तुलनात्मक दृष्टि से विचार करते समय हमें यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि गीता में स्वयं भगवान् के द्वारा अनेक बार यह आश्वासन दिया गया है कि जो मेरे प्रति श्रद्धा रखेगा वह बन्धनों से छुटकर अंत में मुझे ही प्राप्त होगा। गीता में भक्त के योगक्षेम की जिम्मेदारी स्वयं भगवान् ही वहन करते हैं। जबकि जैनदर्शन में ऐसे आश्वासनों का अभाव है । गीता में वैयक्तिक ईश्वर के प्रति जिस निष्ठा का उद्बोधन है, वह सामान्यतया जैन परम्परा में अनुपलब्ध ही है ।.. ___सामान्यतया जैन विचारणा में यदि हम सम्यग्दर्शन को दृष्टिपरक अर्थ में स्वीकार करते हैं, तो उसका हमारे जीवन में एक महत्त्वपूर्ण स्थान सिद्ध होता है । सम्यग्दर्शन जीवन के प्रति एक दृष्टिकोण है । वह अनासक्त जीवन जीने की कला का केन्द्रीय . तत्त्व है । हमारे चरित्र या व्यक्तित्त्व का निर्माण इसी जीवनदृष्टि के आधार पर होता है। गीता में इसी को यह कह कर बताया कि यह पुरुष श्रद्धामय है और जैसी श्रद्धा होती है वैसा ही वह बन जाता है । हम अपने को जो और जैसा बनाना चाहते हैं वह इसी बात पर निर्भर है कि हम अपनी जीवनदृष्टि का निर्माण भी उसी के अनुरूप करें । क्योंकि व्यक्ति की जैसी दृष्टि होती है वैसा ही उसका जीवन जीने का ढंग होता है और जैसा उसका जीने का ढंग होता है, वैसा ही उसका चरित्र बन जाता है । और जैसा उसका चरित्र होता है वैसा ही उसके व्यक्तित्व का उभार होता है । अतः एक यथार्थ दृष्टिकोण का निर्माण जीवन की सबसे प्राथमिक आवश्यकता है।
यदि हम गीता के अनुसार सम्यग्दर्शन अथवा श्रद्धा को आस्तिक बुद्धि के अर्थ में लेते हैं और उसे समर्पण की वृत्ति मानते हैं तो भी उसका महत्त्व निर्विवादरूप से बहुत अधिक है । तनावरहित, शांत
और समत्वपूर्ण जीवन जीने के लिए सम्यग्दर्शन या श्रद्धा युक्त होना आवश्यक है। उसी से वह दृष्टि मिलती है जिसके आधार पर अपने ज्ञान को भी सही दिशा में नियोजित कर उसे यथार्थ बना लेते हैं ।