________________
जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप एक व्यापार अथवा ईश्वर को ठगने का एक प्रयत्न है । ऐसी श्रद्धा या भक्ति नैतिक प्रगति में किसी भी अर्थ में सहायक नहीं होती । नैतिक दृष्टि से केवल ज्ञान के द्वारा अथवा जिज्ञासा के लिए की गई श्रद्धा का ही कोई अर्थ और मूल्य हो सकता है ।'
'तिलक' गीता की इस श्रद्धा के विषय में कहते हैं कि “ जगत् का सर्वव्यवहार श्रद्धा प्रेम वगैरह मनुष्य स्वभाव में सिद्ध हुई मनोवृत्तियों के कारण ही चलता है। एवं बुद्धि तो इन मनोवृत्तियों पर काबू रखने. के उपरांत अन्य कुछ करती नहीं । बुद्धि किसी भी बाबत में ज़ब सत्य-झूठ का विचार करती है उसके पश्चात् मनोवृत्तियों द्वारा उसका अमल होता है। अतः बुद्धिनिष्ठ ज्ञान की पूरिपूर्णता के लिए तथा बाद में वह ज्ञान आचरण में तथा कृतियों में आता है। इस फलद्रूप अवस्था के लिए ज्ञान को हमेशा श्रद्धा-दया-वात्सल्य, कर्त्तव्य-प्रेम इत्यादि अन्य नैसर्गिक मनोवृत्तियों की अपेक्षा होती है । जो ज्ञान इन मनोवृत्तियों को शुद्ध और जागृत करके उनके सहाय की अपेक्षा या जरूरत रखता नहीं है वह ज्ञान कोरा, अपूर्ण, . तर्कटी निष्फल और कच्चा समझना चाहिये । तिलक इस बात को उदाहरण द्वारा स्पष्ट करते हैं कि जिस प्रकार दारु के बिना गोली से बंदूक का वार होता नहीं उसी प्रकार श्रद्धादि मनोवृत्तियों की सहायता के बिना केवल बुद्धिनिष्ठ ज्ञान किसी को तारने में समर्थ नहीं होता ।२ । ____ यहाँ तिलक ने ज्ञानमार्ग के लिए श्रद्धादि मनोवृत्तियों का होना अनिवार्य बताया । भक्तिमार्ग के लिए कहते हैं कि "भक्तिमार्ग में ज्ञान का काम श्रद्धा से ही कर लिया जाता है। यानि शुद्ध परमेश्वर स्वरूप की श्रद्धा से अथवा विश्वास से कुछ समझ प्राप्त करके उसमें उस प्रकार
१. चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन ।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ॥ वही, ७-१६ ॥ २. श्रीमद्भगवद्गीता रहस्य, पृ० ४१४ ॥