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मध्याय ३ अंग मान्य किया है एवं यज्ञ-यागादि कर्मों में भी श्रद्धा की प्रधानता को स्वीकार किया है । ज्ञान-योग, भक्ति-योग एवं कर्म-योग सभी स्थानों में श्रद्धा आवश्यकीय गीता में स्वीकृत की गई है । नैतिक जीवन का सूत्रपात गीता में श्रद्धा से मान्य किया गया है ।
गीता में श्रद्धा या भक्ति चार प्रकार की कही गई है' - १. ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् होने वाली श्रद्धा या भक्ति-परमात्मा का साक्षात्कार कर लेने के पश्चात् उनके प्रति जो निष्ठा होती है वह,
एक ज्ञानी की निष्ठा मानी गई है । २. जिज्ञासा की दृष्टि से परमात्मा पर श्रद्धा रखना, श्रद्धा या भक्ति
का दूसरा रूप है। इसमें श्रद्धा तो होती है लेकिन वह पूर्णतया संशयरहित नहीं होती, जबकि प्रथम स्थिति में होने वाली श्रद्धा पूर्णतया संशयरहित होती है । संशयरहित श्रद्धा तो साक्षात्कार के पश्चात् ही सम्भव है । जिज्ञासा की अवस्था में संशय बना ही रहता है। अतः श्रद्धा का यह स्तर प्रथम की अपेक्षा निम्न ही
माना गया है। . ३. तीसरे स्तर की श्रद्धा आर्त्त-व्यक्ति की होती है। कठिनाई में फंसा व्यक्ति जब स्वयं अपने को उससे उबारने में असमर्थ पाता है
और इसी दैन्यभाव से किसी उद्धारक के प्रति अपनी निष्ठा को स्थिर करता है, तो उसकी यह श्रद्धा या भक्ति एक दुःखी या आर्त व्यक्ति की भक्ति ही होती है। श्रद्धा या भक्ति का यह स्तर पूर्वोक्त दोनों स्तरों से निम्न होता है। ४. श्रद्धा या भक्ति का चौथा स्तर वह है जिसमें श्रद्धा का उदय स्वार्थ के वशीभूत होकर होता है । यहाँ श्रद्धा कुछ पाने के लिए की जाती है । यह फलाकांक्षा की पूर्ति के लिए की जाने वाली श्रद्धा अत्यन्त निम्नस्तर की मानी गई है। वस्तुतः इसे श्रद्धा केवल
उपचार से ही कहा जाता है । अपनी मूल भावनाओं में तो यह १. जैन, बौद्ध और गीता का साधना मार्ग, पृ० ६७-६८ ॥