________________
जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप कल्पनायें होने लगी, वहाँ तर्क अर्थ भी दर्शन में समाविष्ट हो गया, क्योंकि अपने-अपने मत की पुष्टि के लिए सभी को इस का सहारा लेना पड़ता था। इस तरह कल्पनाओं का एव सत्य-असत्य अथवा मिश्र तर्क भी दर्शन अर्थ में ग्रहण होने लगा। इस प्रकार साक्षात्कार अर्थ में दर्शन आगे चलकर विश्वास-सबल प्रतीति-कल्पनाएं-तर्क अर्थ में भी प्रयुक्त होने लगा।
जैन दर्शन में इसके दो अर्थ और प्रचलित हैं-१.. श्रद्धान, २. सामान्य बोध अर्थात् आलोचना मात्र अथवा ज्ञानवाची दर्शन में । श्रद्धान का अर्थ साक्षात्कार न लिया जाकर एक अर्थ में यह व्यवहार से सबल प्रतीति या विश्वास लिया जाता है। दूसरे अर्थ में यह निश्चय से अनुभव (आत्मतत्त्व दर्शन) पर आधारित है। __भारतीय भाषाओं में "दर्शन", "दार्शनिक साहित्य" या "दार्शनिक विद्वान्' जैसे शब्द जो प्रचलित है वे सभी तत्त्व विद्या के साथ सम्बन्धित है। यहाँ एक प्रश्न उपस्थित होता है कि दर्शन शब्द का . प्रचलित और सिद्ध अर्थ तो है. चक्षुर्जन्य ज्ञान; तो फिर यह अतीन्द्रिय तत्त्व ज्ञान अर्थ में किस प्रकार प्रयोग में लिया जाने लगा ? इस प्रश्न का उत्तर उपनिषद् में कितनेक वाक्यों में अपरोक्ष रूप से मिलता है।
उपनिषदों में बहिरिन्द्रियों की शक्ति को बलाबल या तारतम्य दर्शाते कहा है कि 'चक्षुर्वै सत्यम्, 'चक्षुर्व प्रतिष्ठा'२। किसी बात में विवाद होने पर निर्णय के लिए साक्षी की आवश्यकता होती है। दो साक्षी में से एक ने उक्त घटना का श्रवण किया है और एक ने नजरोनजर देखा है तो श्रवणेन्द्रिय की अपेक्षा देखने वाले को अधिक प्रामाणिक स्वीकार किया जाता है। इसी प्रकार चक्षु एक ऐसी इन्द्रिय १. बृह. ५:१४:४ २. वही, ६ : १: ३.