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अध्याय ३
सम्यग्दर्शन या श्रद्धा के महत्त्व को स्पष्ट कर दिया है कि यदि दुराचारी व्यक्ति भी मुझे भजता है अर्थात् मेरे प्रति श्रद्धा रखता है तो उसे साधु ही समझो, क्योंकि वह शीघ्र ही धर्मात्मा होकर चिरशांति को प्राप्त हो जाता है ।' गीता का यह कथन आचारांग के कथन से कि सम्यग्दृष्टि कोई पाप नहीं करता, बहुत अधिक साम्य रखता है ।
आचार्य शंकर ने गीताभाष्य में सम्यग्दर्शन के महत्त्व को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि सम्यग्दर्शननिष्ठ पुरुष संसार के बीज रूप अविद्या आदि दोषों का उन्मूलन नहीं कर सके, ऐसा कदापि संभव नहीं हो सकता अर्थात् सम्यग्दर्शनयुक्त पुरुष निश्चितरूप से निर्वाण-लाभ करता है ।
श्रीकृष्ण गीता में अर्जुन को कह रहे हैं कि “ सम्पूर्ण योगियों में भी जो श्रद्धावान् योगी मेरे में लगे हुए अन्तरात्मा से मुझे निरन्तर भजता है वह योगी मुझे परम श्रेष्ठ मान्य है । " ___श्रद्धा से ‘युक्त योगी अथवा भक्त को श्रीकृष्ण स्थान-स्थान पर उसे परम श्रेष्ठ मान्य करते हैं और कहते हैं कि “जो-जो सकामी भक्त जिस-जिस देवता के स्वरूप को श्रद्धा से पूजना चाहता है, उसउस भक्त की मैं उस ही देवता के प्रति श्रद्धा को स्थिर करता हूँ।" साथ ही यहाँ तक श्रीकृष्ण ने कह दिया कि “पूर्व में व्यतीत हुए
१. अपिचेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् ।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ॥ ..' - क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्ति निगच्छति । . कौन्तेय प्रति जानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति ॥ वही ६:३०-३१ ॥ २ शां० भा०, गीता, १८-१२ ॥ ३. योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना । श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः ॥
-वही, ६-४७, १२-२, १२-२० ॥ ४. यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयाचितुमिच्छति । तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम् ॥ वही, ७-२१-२२ ॥