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जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप ने सम्यग्दर्शन कह कर सम्बोधित किया है तथा पश्चात् ज्ञान होने पर मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है, अतः यह मोक्षमार्ग है।
दूसरा तथ्य यह सामने आता है कि श्रीमदुमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र में जो यह कहा कि “सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः'' यह इससे बहुत अधिक साम्य रखता है। यहाँ कहा गया है कि श्रद्धा-तत्परसंयतेन्द्रिय-ज्ञान-मोक्ष जबकि तत्त्वार्थसूत्र में कहा सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र =मोक्षमार्ग इतनी भिन्नता क्रम में दिखाई देती है। किंतु श्रद्धा को तो प्रथम स्थान दिया है । एवं श्रद्धा, तत्परता, संयती (चारित्र) व ज्ञान से मोक्ष प्राप्त होता है । गीता में पुनः कहा है कि जो कोई भी मनुष्य दोषबुद्धि से रहित और श्रद्धा से युक्त हुए सदा ही मेरे इस मतानुसार वर्तते हैं वे सम्पूर्ण कर्मों से छूट जाते हैं।' - इस श्लोक में पूर्वोक्त कथन की पुष्टि दिखाई देती है । अर्जुन को शंका होती है कि "योग से चलायमान हो गया है मन जिसका ऐसा शिथिल यत्नवाला श्रद्धायुक्त पुरुष योग की सिद्धि को अर्थात् भगवत्साक्षात्कारता को न प्राप्त होकर हे कृष्ण ! किस गति को प्राप्त होता है ? ___ यहाँ कृष्ण इस प्रश्न का समाधान करते हुए कहते हैं कि उस पुरुष का न तो इस लोक में और न परलोक में ही नाश होता है क्योंकि कोई भी शुभकर्म करने वाला अर्थात् भगवदर्थ कर्म करने वाला दुर्गति को प्राप्त नहीं होता ।' यहाँ हमें स्पष्ट दृष्टिगत होता है कि श्रद्धावान् कभी दुर्गति में नहीं जाता क्योंकि गीता में श्रीकृष्ण ने यह कह कर १. ये मे मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः। __ श्रद्धावन्तोऽनसूयन्तो मुच्यन्ते तेऽपि कर्मभिः । वही, ३-३१ ॥ . २. अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाचलितमानसः ।
अप्राप्य योगसंसिद्धि कां गति कृष्ण गच्छति ॥ वही, ६-३७ ॥ ३. पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते । न हि कल्याणकृत्कश्चिदुदुर्गति तात गच्छति ॥ वही, ६-४० ॥