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जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप और वर्तमान में स्थित तथा आगे होने वाले सब भूतों (प्राणियों) को मैं जानता हूँ, परन्तु मुझको कोई भी श्रद्धा भक्ति रहित पुरुष नहीं जानता है ।” यद्यपि श्रद्धा से युक्त हुए जो सकामी भक्त दूसरे देवताओं को पूजते हैं वे भी मुझे ही पूजते हैं, किन्तु उनका वह पूजना अविधिपूर्वक है । ___ यहाँ कृष्ण कहते हैं कि अन्य देवता के रूप में जो श्रद्धा से उनको पूजता है वास्तव में तो वह मुझे ही पूजता है किन्तु उसका' इस प्रकार का पूजन अविधि युक्त है । __कृष्ण कहते हैं कि भगवत् विषय को न जानने वाला तथा श्रद्धारहित और संशययुक्त पुरुष परमार्थ से भ्रष्ट हो जाता है, उनमें भी संशययुक्त पुरुष के लिए तो न सुख है और न यह लोक है, न परलोक है अर्थात् दोनों ही उसके लिए भ्रष्ट हो जाते हैं। एवं इस तत्त्वज्ञान रूप धर्म में श्रद्धारहित पुरुष मुझे न प्राप्त होकर मृत्युरूप संसार चक्र में भ्रमण करते हैं।'
यहाँ संशय को श्रद्धा का घात करने वाली कहा है तथा जो श्रद्धारहित हैं वे तो जन्म मरण के चक्र में फंस कर संसार में ही भ्रमण करते रहते हैं उनकी मुक्ति संभव नहीं। .
बिना श्रद्धा के होमा हुआ हवन तथा दिया हुआ दान एवं तपा हुआ तप और जो कुछ भी किया हुआ कर्म है, वह समस्त असत् १. वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन ।
भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन ॥ वही, ७-२६ ॥ - २. तेऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः ।
तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्य विधिपूर्वकम् ॥ वही, ९-२३ ॥ ३. अशश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति ।
नायं लोकोस्ति न परो न सुख संशयात्मनः ॥ वही, ४ :.४० ॥ ४. अश्रद्दधानाः पुरुषाः धर्मस्यास्य परंतप ।
अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि ॥ वही, ९-३ ॥