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जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप साधनों का विवेचन करते हैं-१. वैराग्य, २. सांख्य-विवेक, ३. योग, ४. तप, ५. भक्ति ।
इस प्रकार वेदांतदर्शन में सम्यक्त्व विषयक विचारणा का हमने अवलोकन किया । जैनदर्शन के सम्यग्दर्शन के सिद्धांत में अन्यवेदांतियों . की अपेक्षा शंकर सन्निकट दृष्टिगत होते हैं । (५) महाभारत
अब तक हमने भारतीय दर्शनों में सम्यक्त्व के स्वरूप का अव.. लोकन किया । अब हम- महाभारत में इसके स्वरूप की विचारणा करेंगे। इस विशाल ग्रन्थ के रचयिता "महर्षि कृष्णद्वैपायन वेदव्यास" . है। महाभारत को पंचम वेद भी कहा गया है। व्यक्ति तथा समाज के आचार के लिए प्रमाणभूत माने जाने वाले ग्रन्थों में इसकी गणना होती है।
सम्यक्त्व या सम्यग्दर्शन का विचार इस ग्रन्थ में 'श्रद्धा' रूप से किया गया है। जैनदर्शन में श्रद्धान को सम्यग्दर्शन का लक्षण पूर्व में स्वीकार किया जा चुका है। इसमें. श्रद्धा के लिये कहा गया है कि-" अश्रद्धा यह महान पाप है और श्रद्धा सर्व पापों से मुक्त कराने वाली है। जिस प्रकार सर्प अपनी पुरानी कांचली का त्याग करता है, उसी प्रकार श्रद्धालु पुरुष भी सब पापों का त्याग करता है । "२ इस कथन का आशय यही निकाला जा सकता है कि श्रद्धालु पापकर्म नहीं करता । जैनदर्शन के आचारांग सूत्र से यह कथन अति साम्य रखता है। वहाँ कहा गया है कि " सम्मत्तदंसी न करेइ पावं" एवं बौद्धादि दर्शनों में भी यह मान्य किया गया है। १. माहात्म्य ज्ञान पूर्वस्तु सुदृढ सर्वतोधिकः ।
स्नेहोभक्तिरितिख्याता तया मुक्तिन चान्यथा । निबन्ध ॥ वल्लभाचार्य । २. अश्रद्धा परमं पापं श्रद्धा पाप प्रमोचिनी।
जहाति पापं श्रद्धावान् सो जीर्णामिव त्वचम् । महा० शांतिपर्व । २६४-१५॥