________________
अध्याय ३.
२०७
• पुनः श्रद्धा के लिए कहा गया है कि “ हिंसा श्रद्धा का नाश करती है और उसके द्वारा पुरुष स्वयं का भी नाश करता है ।" अतः उपदेश देते हुए कहा है कि “ तुम भी श्रद्धा को धारण करो कि जिससे ब्रह्म को प्राप्त करोगे ।'२ जो पुरुष वेद के वाक्यों पर, उसमें कहे हुए धर्म पर श्रद्धा करता है, उसका अमुक एक निश्चय होता है, वही पुरुष ही धर्मात्मा है और वही अपने धर्ममार्ग में स्थिर रह कर अत्यन्त श्रेष्ठ हो सकता है ।
जैन सम्मत तत्त्वार्थ श्रद्धा के समान यहाँ वेद सम्मत श्रद्धा को खीकार किया गया है। यहाँ भी श्रद्धा को परमोच्च स्वीकार किया है। उसकी उत्कृष्टता दर्शाते हुए कहा है कि श्रद्धापूर्वक की हुई कर्म की निवृत्ति पवित्र में भी पवित्र है और जो श्रद्धालु पुरुष रागद्वेष का त्याग करता है वह तो सदा ही पवित्र होता है । - श्रद्धालु के कर्म पवित्र होते हैं उसका उल्लेख धान्य के व्यापारी के साथ करते हुए. ग्रन्थकर्ता.कहते हैं कि “ धान्य का व्यापार करने वाला दातापुरुष का अन्न श्रद्धा के कारण ही पवित्र है। इसके विपरीत वेदविद्या में पारंगत हुए लोभी पुरुष का अन्न श्रद्धा के अभाव के कारण अपवित्र है अतः अभक्ष्य है और धान्य के व्यापारी का : अन्न भक्ष्य है ।"
यहाँ श्रद्धा का महत्त्व सूक्ष्म रूप से किया गया है कि अन्न भी श्रद्धालु का ही पवित्र होता है। इसी हेतु से धर्मवेत्ता कहते हैं १. श्रद्धां निहन्ति वै ब्रह्मन्सा हता हन्ति तं नरम् । वही, २६४-१६ ॥ २. श्रद्धां कुरू महाप्राश ततः प्राप्स्यसि यत्परम् । वही, २६४-१९ ।। ३. श्रद्धावान् श्रद्दधानश्च धर्मश्चैव हि जाजले ।
स्ववमनि स्थितश्चैव गरीयानेव जाजले । वही ॥ ४. ज्यायसी या पवित्राणां निवृत्तिः श्रद्धया सह ।
निवृत्तशीलदोषो यः श्रद्धावान्पूत एव सः। वही, २६४-१९॥ ५. श्रद्धापूतं वदान्यस्य हतमश्रद्धयेतरत् । भोज्यमन्नं वदान्यस्य कदर्यस्य न वाधुषेः। वही, २६४-१३ ।।