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________________ अध्याय ३. तो न्याय दर्शन प्रमाणशास्त्र है । इन दोनों दर्शनों को हम एक दूसरे के पूरक कह सकते है । वैशेषिक दर्शन में सम्यक्त्व विषयक वर्णन किंचिमात्र है जबकि न्याय दर्शन में इस का कुछ स्वरूप अवश्य द्योतित किया गया है। __. जैनदर्शन ने एवं बौद्धदर्शन ने जिसे सम्यग्दर्शन कहा उसे सांख्य एवं योगदर्शन ने विवेकख्याति से अभिहित किया । न्याय एवं वैशेषिक दर्शन उसे तत्त्वज्ञान संज्ञा से अभिहित कर उससे मोक्ष की प्राप्ति स्वीकार करते हैं । षोडश सत् पदार्थों के तत्त्वज्ञान से (यथार्थ ज्ञान से) निःश्रेयस अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति होती है। जैनदर्शन में जहाँ जीवादि सात पदार्थों के श्रद्धान से सम्यग्दर्शन और सम्यग्दर्शन को मोक्षप्राप्ति का मार्ग कहा, वहाँ न्यायदर्शन तत्त्वज्ञान से मोक्ष प्राप्ति स्वीकार करता है ।. इस तत्त्वज्ञान की उत्पत्ति अर्थात् यह तत्त्वज्ञान किस प्रकार होता है ? उसे स्पष्ट करते हुए न्यायसूत्रकार कहते हैं कि - दुःख, जन्म, प्रवृत्ति, दोष और मिथ्याज्ञान की निवृत्ति होने पर उससे रागद्वेषादि दोषों के निवृत्त हो जाने से तत्त्वज्ञान से अपवर्म अर्थात् मोक्ष होता है। .. यह तत्त्वज्ञान क्या है ? तो न्यायसूत्रकार. न्याय-वैशेषिकदर्शन. अध्यात्मविद्या को स्वीकार कर तत्त्वज्ञान का अर्थ करते हैं-आत्मा आदि का ज्ञान । वास्तव में आत्मा का ज्ञान या आत्मा का साक्षात्कार ही '. 'तत्त्वज्ञान है। आत्म-साक्षात्कार अन्य पदार्थों के स्वरूप को जाने बिना नहीं होता अतः तत्त्वज्ञान से आत्म और अनात्म सर्वपदार्थों के स्वरूप को जाना जाता है। १ तत्त्वज्ञानान्निश्रेयसाधिगम । न्या० सू०, १-१॥ २. दुःख जन्मप्रवृत्तिदोषमिथ्याज्ञानानामुत्तरोत्तरापाये तदनन्तरापायादप वर्गः। न्या० स०, १-३।। ३. इह त्वध्यात्मविद्यायामात्मादितत्त्वज्ञान तत्त्वज्ञानम् , न्या० भा०, १-१॥
SR No.002254
Book TitleJain Darshan me Samyaktva ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year1988
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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