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न दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप अनात्म देह आदि में आत्मबुद्धि होना मिथ्याज्ञान या विपर्यय अर्थात् विपरीत ज्ञान है तथा अनात्म देहादि में अनात्म बुद्धि होना यही तत्त्वज्ञान है।' इसी भेद ज्ञान को सांख्य व योगदर्शन में विवेकख्याति से अभिहित किया है । इस तत्त्वज्ञान के उदय होने पर मिथ्याज्ञान दूर होता है। मिथ्याज्ञान के दूर होने पर अनात्म शरीरादि . के प्रति जो मोह-राग है वह दूर होता है अर्थात् मिथ्याज्ञान के दूर होने पर मोह, राग आदि दोष भी दूर होते हैं। रागादि दोषों के दूर होने पर व्यक्ति की प्रवृत्ति इन दोषों से युक्त नहीं होती। ऐसी . दोषरहित प्रवृत्ति से पुनर्भव का कारण नहीं होता। इस प्रकार दोषरहित प्रवृत्ति करने से पुनर्भव दूर होता जाता है । इधर दोषरहित प्रवृत्ति से कर्मबंधन नहीं होता । इस प्रकार इन सभी से (दोषों से) मुक्त हो जाता है और वह जीवन्मुक्त कहलाता है। यह किस प्रकार होता है ? न्यायसूत्रकार इसे समाधिविशेष के अभ्यास से स्वीकार करते हैं ।' तत्त्वज्ञान की उत्पत्ति के लिए वे यम, नियम का अनुष्ठान आवश्यक कहते हैं । इसी के साथ वे इसकी उत्पत्ति के विषय में योगविहित तप, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान आदि उपायों को भी जरूरी समझते हैं । इस प्रकार योगसाधना से आत्मा संस्कृत बनकर शुद्ध होती है और उसमें तत्त्वज्ञान की योग्यता आती है । वैशेषिक सूत्रकार कणाद भी यही स्वीकार करते हुए कहते हैं कि धर्म निःश्रेयस का उपाय है । १. न्या० भा०, ४-२-1 ( उत्थानिका)॥ २. तत्वज्ञानं खलु मिथ्याशानविपर्य येण व्याख्यातम् आत्मनि तावदस्तीति, __ अनात्मनि अनात्मेति १-१-२, न्या० भा०॥ ३. वही॥ १. वही, ४-२-२॥ ५. समाधिविशेषाभ्यासात् , वही। ४-२-३८ ॥ ६. तदर्थ यमनियमाभ्यामात्मसंस्कारो योगाच्चाध्यात्मविध्युपायैः,
न्या० स०। ४-२-४६ ॥ ७. यतो अभ्युदयानिः श्रेयससिद्धिः स धर्मः, वैशेषिक सूत्र । १-१-२ ॥