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________________ १९२ जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप योगान्तराय या योगप्रतिपक्षी से भी पहचाना जाता है । ये नौ हैं१. व्याधि, २. स्त्यान, ३. संशय, ४. प्रमाद, ५. आलस, ६. अविरति, ७. भ्रांतदर्शन, ८. अलब्ध भूमिकता, ९. अनवस्थितता ।' - जैनदर्शन में इन नौ में से भ्रांतदर्शन = मिथ्यादर्शन, अविरतिप्रमाद-आलस, कषाय-अलब्ध भूमिकता और योग का अनवस्थितता के सदृश स्वीकार कर सकते हैं । संशय यह शंका नामक सम्यक्त्व के अतिचारों में ग्रहण किया गया है। इस प्रकार योगदर्शन में सम्यग्दर्शन को विवेकख्याति संज्ञा से अभिप्रेत किया है। वह आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त कर कैवल्य की और दौड़ता है। जब तक विवेकख्याति दृढ़ नहीं होती तब तक व्युत्थानसंस्कार अन्य विक्षेप डालते हैं । पर जो योगी विवेकख्याति का अभ्यास करता रहता है, वह योगी जीवन्मुक्त दशा को प्राप्त कर लेता है। कारण कि उसके पुनर्जन्म भी संभव नहीं क्योंकि उसने उन कारणों का भी नाश कर दिया है । इस प्रकार विवेकख्याति अर्थात् सम्यग्दर्शन से मोक्ष की प्राप्ति को स्वीकार किया है। वह सर्वज्ञ और परिपूर्ण ज्ञानयुक्त होता है।' (३) न्याय-वैशेषिक दर्शन सांख्य और योगदर्शन में सम्यक्त्व का निरूपण करके अब हम न्याय एवं वैशेषिक दर्शनगत सम्यक्त्व या सम्यग्दर्शन की विचारधारा का अवलोकन करेंगे। न्यायदर्शन के प्रणेता महर्षि गौतम एवं वैशेषिक दर्शन के प्रणेता महर्षि कणाद माने जाते हैं। वस्तुतः न्यायदर्शन और वैशेषिकदर्शन दोनों का समानतन्त्र है। वैशेषिकदर्शन पदार्थशास्त्र है, १. व्याधिस्त्यानसंशयप्रमादालस्याविरतिभ्रांतिदर्शनालब्धभूमिकत्वानवस्थि तत्त्वानिचित्त विक्षेपास्तेऽन्तराया , यो सू० १-३० २. तदा विवेकनिम्न कैवल्यप्राग्भारं चित्तम् , यो० मु० ४-२६ ।। ३. यो० स० ४-३०, ४-३१ ।। ४. यो० सू० ३-५४, यो० भा०, ३-५५ ॥
SR No.002254
Book TitleJain Darshan me Samyaktva ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year1988
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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