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अध्याय ३
१९१
हेतुविमुक्ति, ३ हानविमुक्ति, ४ हानोपायविमुक्ति, ५. चित्ताधिकारविमुक्ति, ६. चित्तगुणविमुक्ति, ७. प्रलीनचित्तगुणपुनर्भावविमुक्ति । १. हेयविमुक्ति - जो कुछ हेय है, वह सभी जान लिया गया अब मेरे जानने में न हो, ऐसा कोई हेय नहीं है ऐसी प्रज्ञा
२.
यहेतुविमुक्ति - हेय के जितने हेतु हैं, उन सभी का मैंने नाश किया है । अब मेरे क्षय करने योग्य कुछ नही ऐसी प्रज्ञा । ३. हानविमुक्ति - मोक्षरूप हान के स्वरूप का मुझे निश्चय हो गया है, उस विषय में निश्चय करना शेष नहीं, ऐसी प्रज्ञा
४. हानोपायविमुक्ति - मोक्ष के उपायरूप विवेकख्याति को मैंने सिद्ध करके प्राप्त कर ली है, उसे प्राप्त करने के लिए अब मुझे कुछ करना शेष नहीं ।
५. चित्ताधिकार विमुक्ति - बुद्धि के प्रयोजन सिद्ध हो गये हैं, वह कृतार्थ हुई है ऐसी प्रज्ञा ।
६ चित्तगुणविमुक्ति बुद्धिसत्व के गुण बुद्धि के साथ अपने मूल कारण में लय हो गये - ऐसी प्रज्ञा ।
७. प्रलीन चित्तगुण पुनर्भावविमुक्ति - अत्यन्त लय प्राप्त चित्त-गुणों की पुनः उत्पत्ति होती नहीं, कारण कि उसके लिए कोई प्रयोजन नहीं । चित्तगुणों का लय होने पर अनंतकाल में गुणसम्बन्धातीत हुआ निर्मल केवल पुरुष अपने स्वरूप में ही स्थिति करता है, ऐसी प्रज्ञा । ' जैनदर्शन में इन सातों विषयों को गुणस्थान के समान मान सकते हैं । प्रथम चार को समावेश चतुर्थ सम्यग्दृष्टि में कर सकते हैं । पाँचवें को ग्यारहवें गुणस्थान, छट्ठे को बारहवें गुणस्थान एवं सातवें को तेरहवें और पश्चात् चौदहवें गुणस्थान के समान मान सकते है । योगदर्शनचित्त को स्थिर होने में बाधक अर्थात् चित्त को विक्षिप्त करने वाली नौ वस्तुएं मानता है । इन नव को योगमल,
१. यो० भा०, २२७ ॥