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जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप यह प्रज्ञा विवेकख्याति रूप ही है । ऋतम्भरा प्रज्ञा और विवेकख्याति के बीच भेद है या नहीं, इसकी स्पष्टता योगदर्शन नहीं करता । परन्तु विवेकख्याति के स्वरूप से ऋतम्भराप्रज्ञा भिन्न महसूस नहीं होती। अथवा दूसरी दृष्टि से इस प्रकार भी कह सकते है कि साधक की प्रज्ञा विवेकख्याति के उदय के साथ ही ऋतम्भरा बन जाती है। विवेकख्याति यह सम्यग्दृष्टि है और सम्यग्दृष्टि होने पर साधक का ज्ञान या प्रज्ञा भी सम्यक् बन जाती है। वैसे विवेकज्ञान के उदयं के साथ ही ऋतम्भरा प्रज्ञा का उदय होता है। इस दृष्टि से भी दोनों अभिन्न महसूस होती है । इस प्रकार यह फलित होता है कि वह विवेकज्ञान की प्राथमिक भूमिका है।'
इस विवेकख्याति को साधक प्रबल या दृढ़ीभूत न कर सके तो वह वापिस चली जाती है। किन्तु यदि विवेकख्याति को निरंतर अभ्यास से प्रबल किया जाय तो मिथ्याज्ञान का नाश होकर सर्व क्लेश दूर हो जाते हैं। इस प्रकार मिथ्याज्ञान के नाश होने पर उस के पुनः उत्पन्न होने की संभावना नहीं रहती।
जैनदर्शन के अन्तर्गत इसे हम सम्यक्त्व के भेदों में उपशम व क्षायिकसंज्ञा दे सकते है। उपशमसम्यक्त्व का वमन हो जाता है जबकि क्षायिकसम्यक्त्व तो अप्रतिपाति है अर्थात् उत्पन्न होने के बाद नाश नहीं होता।
विवेकख्यातिनिष्ठा योगी के निरतिशय उत्कर्षवाली सात प्रकार की प्रज्ञा होती है । वस्तुतः प्रज्ञा तो एक ही होती है परन्तु उसके विषय भेद से सात भेद होते हैं वे सात विषय हैं-१. हेयविमुक्ति, २. हेय१ यो० भा०, ३-५२ ॥ २. विवेकख्यातिर विप्लवा हानोपायः यो सू०२-२० एवं यो० भा०२-२६ ॥ ३. ततो मिथ्याशानस्य दग्धबीजभावोपगमः पुनश्चाप्रसवः।।यो भा०२-२६।। ४. तस्य सप्तधा प्रान्तभूमि: प्रज्ञा, यो० स० २-२७ ॥