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________________ मध्याय ३ १८९ यह श्रद्धा कैसी है ? उसके लिए भाष्यकार कहते हैं कि यह श्रद्धा कल्याणी माता की भांति अनेक विघ्नों को दूर करके अनर्थों से योगी का रक्षण करती है । इससे उसके योग का भंग नहीं होता । ऐसी श्रद्धावाले योगी में इच्छित विषय की प्राप्ति के लिए उस विषय में चित्त को पुनः पुनः स्थापन करने रूप धारणा नामक प्रयत्न उत्पन्न होता है । धारणा का अभ्यास करने वाले योगी को ध्यानावस्था की प्राप्ति होती है । ध्यान का अभ्यास करने से योगी का चित्त सर्व प्रकार की व्याकुलता से रहित बनकर अंतिम योगांग समाधि को प्राप्त करता है । पश्चात् इन सभी योगांगों में कुशल योगी को संप्रज्ञातयोग की पराकाष्ठा रूपं विवेकख्याति उत्पन्न होती है । उसके बाद विवेकख्याति के अभ्यास से और वैराग्य से असंप्रज्ञात योग होता है। इस प्रकार श्रद्धा की सिद्धि होने से वीर्य का उदय, वीर्य की सिद्धि से स्मृति, स्मृति की सिद्धि से समाधि और समाधि की सिद्धि से प्रज्ञा विवेक का उदय होता है । इस प्रकार श्रद्धा या विवेकख्याति तो सर्व योगों का प्रभवस्थल है । ' जैनदर्शन में इन पांचों को अन्य रीति से स्वीकार किया है• सम्यग्दर्शन, विरति, अप्रमाद, अकषाय और अयोग । दर्शन यह श्रद्धा है, वीर्य यहां विरति है। अप्रमाद और स्मृति, अकषाय और समाधि, अयोग और प्रज्ञा सदृश है । बौद्धदर्शन में श्रद्धा, वीर्य आदि को · आध्यात्मिक विकास की पांच शक्तियों के रूप में स्वीकार करता है। - योगदर्शन में प्रज्ञा की विशुद्धावस्था को ऋतम्भरा प्रज्ञा कहा है । जिसका व्युत्पन्न अर्थ सत्य को धारण करने वाली प्रज्ञा । वैसे १. तत्त्ववैशारदी, १-२० ॥ २. सा हि जननीव कल्याणी योगिनं पाति, तस्य हि श्रद्धानस्य विवे. कार्थिनो वीर्यमुपजायते समुपजातवीर्यस्य स्मृतिरूपतिष्ठे, स्मृत्युपस्थाने च चित्तमनाकुलं समाधीयते, समाहितचित्तस्य प्रज्ञाविवेक उपावर्तते। योगभाष्य, १.२० ॥ ३. ऋतम्भरा तत्र प्रज्ञा, यो० सू० १-४८ ॥
SR No.002254
Book TitleJain Darshan me Samyaktva ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year1988
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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