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________________ १८८ जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप का कथन है कि 'चित्त एक नदी है, उस चित्त-नदी के वृत्तिरूप प्रवाहित होने के दो मार्ग है—१. बहिर्मुख, २. अन्तर्मुख । बहिर्मुख के मार्ग में प्रवाहित वृत्तिप्रवाह अविवेक रूप ढाल के कारण संसार सागर की ओर दौड़ता है तथा अन्तर्मुख मार्ग में प्रवाहित वृत्तिप्रवाह विवेक रूप ढाल के फलस्वरूप कैवल्यसागर की ओर दौड़ता है । बहिर्मुख मार्ग में प्रवाहित होते हुए को रोकने के लिए अपर वैराग्य और अंतर्मुख करने के लिए विवेकदर्शन का अभ्यास आवश्यक है।" . इस प्रकार इतना तो निश्चित है विवेकख्याति से कैवल्य की . अर्थात् मुक्ति की प्राप्ति होती है और यह विवेकख्याति सम्यक्त्व अर्थात् भेद-ज्ञान है । सांख्यदर्शन इस विवेक ख्याति की उत्पत्ति परोपदेश से मानता है तो योगदर्शन योगांगों के अभ्यास व अनुष्ठान से स्वीकार करता है । ये योगांग आठ है इसके अतिरिक्त अभ्यास, वैराग्य एवं श्रद्धा भी योग के अंग है पर इन आठों में ही उनका समावेश हो जाता है । ये आठ योगांग इस प्रकार है-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि । इसमें समाधि के दो भेद है-संप्रज्ञातसमाधि जो कि अंगरूप है और असंप्रज्ञातसमाधि जो कि अंगीरूप है । यह असंप्रज्ञातसमाधि भी दो प्रकार की हैभवप्रत्यय और उपायप्रत्यय । भवप्रत्यय असंप्रज्ञातसमाधि में योगियों को जन्म से ही इस समाधि का अनुभव होता है। किंतु उपायप्रत्यय असंप्रज्ञातसमाधि जन्मसिद्ध नहीं वरन् उपायों के अनुष्ठान द्वारा प्राप्त होती है । ये उपाय है- श्रद्धा, वीर्य, स्मृति, समाधि और प्रज्ञा ।' ___आगम, अनुमान और आचार्य के उपदेश से परोक्ष रीति से पुरुष का साक्षात्कार करने की जो उत्कृट इच्छा है वही श्रद्धा है । १. यो० भा०१-१२ ॥ २. योगसूत्र, २-२९ ॥ ३. वही, १-१९ ॥ ४. श्रद्धावीर्यस्मृतिसमाधिप्रज्ञापूर्वक इतरेषाम् ॥ वही, १-२० ॥ ५. स चागमानुमानाचार्योपदेशसमधिगततत्त्वविषयो भवतितत्ववैशारदी । १-२० ॥
SR No.002254
Book TitleJain Darshan me Samyaktva ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year1988
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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