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अध्याय ३ . भोक्ता है, (५) आत्मा मुक्ति प्राप्त कर सकता है, (६) मुक्ति का उपाय है ।जैन तत्त्व विचारणा के अनुसार इन षट्स्थानकों पर दृढ प्रतीति सम्यग्दर्शन की साधना का आवश्यक अंग है । दृष्टिकोण की विशुद्वता एवं सदाचार दोनों ही इन पर निर्भर है । हम कह सकते हैं कि ये षटस्थानक जैन नैतिकता के केन्द्रबिंदु है ।
जिस प्रकार जैन परम्परा में सम्यग्दर्शन के पांच अतिचार शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, आदि ( दोष ) माने हैं, उसी प्रकार बौद्ध परम्परा में भी पांच नीवरण माने गये हैं-१. कामच्छन्द (कामभोगों की चाह ) २. व्यापाद ( हिंसा ), ३. स्त्यानमृद्ध (मानसिक चैतसिक आलस्य), ४. औद्धत्य-कौकृत्य (चित्त की चंचलता), ५. विचिकित्सा (शंका)' । तुलनात्मक दृष्टि से देखें तो बौद्ध परम्परा का कामच्छन्द जैन परम्परा के कांक्षा नामक अतिचार के सदृश है। विचिकित्सा को दोनों ने ही मान्य किया है पर जैन परम्परा में संशय और विचिकित्सा अलग-अलग माने गए हैं, लेकिन बौद्धपरम्परा दोनों का एक में ही अन्तर्भाव कर देती है । बौद्ध विचारणा में आर्य अष्टांगिक मार्ग में सम्यग्दर्शन या सम्यग्दृष्टि का अर्थ यथार्थ दृष्टिकोण स्वीकारा है। . . दुःखों का समूलोच्छेद करने का उपाय यह अष्टांगिक मार्ग है।
चतुर्थ आर्य सत्य और यह एक ही है । इस मार्ग को “ अरण" ' (दुःखरहित ) धर्म भी कहते हैं । यह मार्ग आँख खोलने वाला, बोधि और निर्वाण तक ले जाने वाला है । यह कल्याण और अमृत का मार्ग है । इस मार्ग को मध्यम मार्ग (मध्यमा प्रतिपद् ) भी कहते है क्योंकि यह अनुत्तर शांति का मार्ग है ।'
१. विशुद्धिमार्ग. भाग १, पृ० ५१ [ हिंदी] । २. अरणं विभंगसुत्त, म. नि० ॥ ३. भांगदिय सुत्त, म० नि ।। ४. धम्मचकपवत्तन सुत्त, म० नि० ॥